वैचारिक एवं लघु साहित्यिक पत्रिकाओं का विज्ञापन का संबल चाहिए, लेकिन विज्ञापन चाहिए भी तो अपनी शर्तों पर न कि विज्ञापनदाता की शर्तों पर. यह दुनिया का सबसे जटिल काम है, लेकिन मेरे मित्र और अब पत्रिका के प्रबंध संपादक बन गए राज रगत सिंगे ने इसे मेरे लिए आसन बना दिया है. उनकी ही वजह से ये दोनों विज्ञापन मिले हैं.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें