शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

बरास्ता गाँधी, जीवन बदलता एक पानीदार गाँव

                                                        वलनी में किसानों का कायाकल्प कर दिया तालाब ने 

रहिमन कह गए हैं, बिन पानी सब सून...., नागपुर से महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव ने पानी की महत्ता को कैसे समझा और स्वीकारा बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार सुनील सोनी.

इस बार वलनी के ग्राम तालाब की पार पर खड़ा हुआ तो दिल भर आया. हरे, मटमैले पानी पर हवा लहरें बनाती और इस किनारे से उस किनारे तक ले जाती. लगता दिल में भी हिलोरें उठ रही हैं. कहाँ था ऐसा तालाब ? जो था, वो सपनो में ही था. सपने अगर सच हो जाएं तो दुनिया, दुनिया ना रह जाए. मगर आँखें तो सच देख रही थीं. कितने साल, मई की भरी दुपहरी में, जब भीतर तक जला देने वाली लू और देह से सारा जल निचोड़ लेने वाला सूरज धरती के सीने में भी बिबाई बो देता, तब उस सूखे तलहट में चहलकदमी करते हुए सोचा करते कि यहाँ से वहां तक, इधर से उधर तक, भर जाये पूरा तालाब पानी से. आमीन ! तथास्तु !! 
अब तो मुग्ध आँखें नज़ारा देख रही हैं और कान सुन रहे हैं. पार्श्व से फूटती गूंजती आवाज़ में जैसे भविष्यवाणी हो रही है : "इस बार जितना भरा है, उतना तो कई दशकों में नहीं भरा. अब नहीं सूखेगा ये. इसमें दो पुरुष से ज्यादा पानी है." 
पिछले ११ सालों में कितनी ही बार, इस १९ एकड़ के तालाब को पैदल चलते हुए पार करते हुए दिमाग में बेवजह हिंसक तस्वीरें बनने लगतीं, जैसे गाँववालों के दिल से रिसते खून से ही भरेगा ये तालाब. ऐसे-वैसे मिला लो तो कोई २३ सालों का है ये संघर्ष. लेकिन, कोई कह दे कि बूँद भर खून भी माटी में गिरा हो.   फिर केशव  डम्भारे  और योगेश अनेजा के चेहरे उभर आते और खिलखिलाती, मजबूत आवाज आती; ''हम तो ऐसे ही लड़ेंगे. एक कतरा भी खून नहीं गिरेगा. सिर्फ पानी से भरेगा तालाब.'' अचानक चौरी-चौरा  की याद हो आई. गाँधी ने अहिंसा के व्रत के लिये कितना बड़ा त्याग किया था! सबके विरोध के बावजूद पूरा आन्दोलन रोक दिया. महात्मा के संकल्प  को असली मायनों में ये लोग अपनी लड़ाई के मार्फ़त आगे बढ़ा रहे हैं.  सचमुच, अनवरत संघर्ष से निकले पसीने और पानी ने ही यहाँ की धरती को सींचा है और उससे जो बेलें फूटी हैं, वे दुनिया को राह दिखने वाली हैं. 
चलिए पहले वलनी का किस्सा सुनते हैं, और फिर हासिल की बात करते हैं. 
ये समाज और सत्ता, जनता और जनार्दन, गण और तंत्र के बीच जारी अनवरत द्वंद्व की कथा है. विषयवस्तु बस इतनी-सी है कि एक गाँव है; गाँव का एक निस्तारी तालाब है और मालगुजार/ जमींदार है. जमींदार तालाब हड़प लेता है और गाँव वाले उसे छुड़ाने के लिये अथक आन्दोलन करते हैं. सारी व्यवस्था, सत्ता और राजनीतिक तंत्र, न्याय प्रणाली जमींदार के पक्ष में अंगद के अंदाज़ में खड़ी है. जनता का मोर्चा भी लगा है. तालाब को ग्राम समाज ने अपने कब्जे में ले लिया है. अंततः उपसंहार का इंतजार है. लेकिन, इस तालाब और उसकी लड़ाई ने वलनी के जीवन को बदल दिया है, जीवन स्तर को आर्थिक और सामाजिक तौर पर सतह से बहुत ऊपर उठा दिया है. तालाब खुद भी तब्दील हो गया है, जीवनधारा में. उसने किसानों को जीने के नए मायने सिखाये हैं. अपनी जमीन और खेत से फिर से प्यार करना सिखाया है. 
वलनी नागपुर से महज २१ किलोमीटर दूर है और वहां ये सब कुछ घट रहा है. ये हुआ कैसे और आखिर हुआ क्या?, जानने के लिये अतीत के झरोखों से तीन दशक पीछे झांकना पड़ेगा. 
सन १९८३ की बात है. नौसेना से नौकरी छोड़कर एक नवयुवक अपने गाँव लौट आया. यानी केशव रामचंद्र डम्भारे. पिता रामचंद्र गाँव के सरपंच थे और किसान भी.  लेकिन केशव को खेती नहीं करनी थी. उनके मन में एक दूसरा है ख्याल था. सहकारी समिति से लोन लेकर उसने चार भैंसें खरीदीं और डेयरी फार्म खोला. दूध की सप्लाई नागपुर होती. सालभर के भीतर चार से दस भैंसें हो गईं. आमदनी काफी बढ़ गई. लेकिन, एक समस्या बरक़रार थी. गाँव में पानी नहीं था. ग्राम-तालाब मार्च खत्म होते-होते सूख जाता. फिर शुरू होती असली कसरत. केशव और उनका कर्मचारी रोजाना खेत के कुएं से प्रति भैंस आठ बाल्टी पानी खींचते. यह काम उन्हें इतना थका देता कि शेष कुछ नहीं हो पाता. बच्चों को भीषण गर्मी से  निजात दिलाने के लिये वे कूलर खरीद लाये, पार उसमें पानी डालने के लिये रात १२ बजे तक का इंतजार करना पड़ता. इसके पहले तक गाँव के एकमात्र हैण्डपम्प पार महिलाओं का कब्ज़ा रहता, जो अपने घरों के लिये लड़ते-झगड़ते पीने का पानी भरतीं. नतीजा ये हुआ कि पानी के अभाव के मारे केशव ने डेयरी फार्म बंद करने का फैसला किया. इसके बावजूद उनके दिमाग को एक सवाल मथता रहता. गाँव में इतना बड़ा तालाब है, बारिश भी अच्छी होती है. इसके बावजूद पानी की इतनी किल्लत क्यों?  नतीजे पर पहुंचे कि तालाब में गाद जमा हो गई है और जलग्रहण क्षेत्र (कैचमेंट एरिया)  से पानी तालाब में बहकर नहीं आता है. अधसूखे तालाब में मार्च तक थोड़ा-बहुत पानी रहता है और फिर जून तक सूखा. बारिश आई तो भरा, वर्ना ढोर-डंगरों का काम किसी तरह चलाना पड़ता. गाद कोई निकलता नहीं. हर साल मिर्च, बैंगन, टमाटर, सेम, कद्दू लगाना हो बुजुर्गों के कहने पर तलछट से दो-चार छिटुए मिट्टी भर लाये और बीज बो दिए. अंकुर फूटे तो खेत में लगा दिए. 
तालाब को गहरा करने के लिये यह काफी नहीं था. हद तो तब हो गई, जब अचानक दो भाई भगवान और श्रावण नान्हे आए और तालाब में मछलियाँ पालने लगे. पता लगाया तो मालूम हुआ कि गाँव तालाब का पॉँच एकड़ हिस्सा जमींदार/ मालगुजार रुद्रप्रताप सिंह पवार ने बेच दिया है. सवाल उठा: तालाब तो गाँव का था, जमींदार ने कैसे बेच दिया? तहसीलदार से शिकायत की तो नान्हे बंधुओं और जमींदार पवार का कब्जे की पुष्टि हो गई. यही नहीं, शेष १४ में से पॉँच एकड़ सीलिंग में चला गया. गाँव में हड़कंप. केशव ने दस्तावेज निकलवाए तो पता चला अंग्रेज सरकार के बंदोबस्त के मुताबिक १९११-१२ में तालाब को जमींदार से सरकारी कब्जे में ले लिया गया था. लेकिन बाद में किसी तरह जमींदार ने उसे अपने नाम चढवा लिया. गाँव वाले इसके खिलाफ एक हो गए. तहसीलदार   से लेकर कलेक्टर, ग्राम पंचायत से लेकर जिला परिषद तक, शिकायत की. कोई नतीजा नहीं निकला. साल दर साल निकलते गए. फिर आया वर्ष १९९७. इस गाँव में योगेश अनेजा अपने दोस्त योगेश वानखेड़े के साथ पहुंचे. केशव और उनके साथियों ने उनका स्वागत किया और तालाब की बात निकली. योगेश ने सलाह दी कि तालाब किसी का भी हो पहले उसे खोद लिया जाये. गाँव वाले श्रमदान करें. शुरुआत हुई, पर बात नहीं बनी. हाथ से तालाब खोदना संभव नहीं था और गाँव में किसी के पास 'बेगार' के लिये समय भी नहीं था. तब गाँव में अलख जगाने के लिये केशव और योगेश के दस्ते ने वृक्षारोपण शुरू किया. धीरे-धीरे एक बात और समझ में आई कि बरसात का पानी गाँव में रुकता नहीं है, इसलिए खेतों में ही जलसंग्रह जरूरी है. सड़क बन रही थी तो ठेकेदार गाँव के गौण खनिज यानी मुरुम लूट रहा था. योगेश और केशव के दस्ते ने उसे रोका और राज़ी किया कि वे जहाँ से कहें, वहां से मुरुम निकली जाये. ठेकेदार मान गया और गाँव में पहली बार एक पोखर (छोटा तालाब) बन गया. पानी जमा हुआ तो कुओं का जलस्तर बढ़ गया. गाँव के किसानों का विश्वास इस हरावल दस्ते पर जमने लगा. ग्राम पंचायत के कोष से लोग शेततली (खेत तालाब) बन्ने के लिये राजी होने लगे. पानी रुकने लगा तो कुएं भरने लगे. सिंचाई ज्यादा होने लगी. लेकिन ग्राम-तालाब की हालत अब भी खराब थी. योगेश ने केशव के सहयोग से आमराय बनवाई कि जेसीबी मशीन से तालाब खोदा जाये. लेकिन, उसकी मिट्टी का क्या हो? बुजुर्गों का अनुभव और परंपरागत ज्ञान काम आया. तय हुआ कि हर खेत में एक टिप्पर मिट्टी डालने के २०० रुपये देने होंगे. नुकसान होने की सूरत में भरपाई की जिम्मेदारी भी ली. पहले ही दिन एक लाख चार हज़ार रुपये इकट्ठे हो गए. नतीजा अच्छा रहा. तालाब खुदने लगा और जिन खेतों में ये मिट्टी डली, उसमें फसल भी कई गुना हो गई. आसपास के गांवों से भी आर्डर आने लगे तो गाँव के  किसानों की हिम्मत भी बढ़ी और साल दर साल काम चलता गया. कई बाधाएं आईं. मालगुजार ने लठैतों, अपराधियों, पुलिस, प्रशासन, नेताओं, अदालत; सबकी मदद ली और पूरा जोर लगा दिया कि तालाब उसके हाथ लग जाये. नान्हे बंधुओं ने भी काफी बाधाएं डालीं. चुनावी राजीनति के चलते गाँव में बने दो गुट से भी काम प्रभावित हुआ. लेकिन, केशव के नेतृत्व और योगेश के मार्गदर्शन में गाँववाले अडिग रहे. ट्रैक्टर के सामने बिना डरे लेटे, लाठियां खाईं, अनशन किया, दौड़-भाग की, कागज-फाइलें फिरवाईं, महीनों कलेक्टर और अफसरों के दफ्तर के सामने बैठे, जेल गए. लेकिन, हारे नहीं. १५ साल से हर रोज़ किसी ना किसी मुसीबत से लड़ते-लड़ते आदत सी हो गई है. यह तब तक चलेगा, जब तक कि तालाब गाँव का ना हो जाये. एक अच्छा काम हुआ. केशव और उनके साथियों की संख्या बढाती चली गई. अब हाल यह है कि पूरा गाँव एक है. राजनीतिक विरोधी भी साथ मिलकर ये काम कर रहे हैं. इस संघर्ष ने केशव और योगेश को सिखाया कि हर बार गाँव की तरक्की का  नया आइडिया खोजा जाये और उसे अमल में लाया जाए. पिछले साल यह हुआ कि पंचायत की मर्ज़ी के मुताबिक सड़क बनने वाले ठेकेदार ने मुरुम निकलने के लिये आधे से कुछ काम तालाब को १५ फुल गहरा खोद दिया. लेकिन, अब उसमें पानी भरने का संकट था, क्योंकि जलग्रहण क्षेत्र उसे पूरा नहीं कर पाता. यहाँ गाँव वालों की देशज समझ काम आई. उन्होंने ठेकेदार से गाँव के बाहर से तालाब तक एक छोटी नहर बनवा ली. बरसात में इस नहर से होता हुआ इतना पानी इस तालाब में आया कि वह पूरा भर गया और अब शायद ही कभी खाली हो. दूसरा हिस्से की खुदाई के लिये पानी निकलने के वास्ते पम्प लगाना पड़ रहा है. दूर तक के कुएं भर गए हैं. नान्हे भी खुश है. उसका गाँव वालों से समझौता हो गया है. वह पूरे तालाब में मछलियाँ पालता है और लाखों की मछलियों के बदले सालाना सात हज़ार रुपये ग्राम पंचायत को देता है. यानी आम के आम, गुठलियों के दाम. इस एक  तालाब ने गाँव का जीवन बदल दिया है. जरा आश्चर्य हो सकता है, पर योगेश कहते हैं : कोई लूट सके तो लूट ले हमारे गाँव की मिट्टी और मुरम को. 
वर्षों के सत्याग्रह का नतीजा वलनी फार्मूले के तौर पर निकला है.  अब यह बहुवचन हो गया है यानी 'फार्मूलों'.
१. पहला फार्मूला था कि तालाब को खोदो और उसकी गाद खेत में डालो. इससे फसल कई गुना बढ़ जाएगी. वलनी और आसपास के किसानों ने इस फार्मूले को अपनाया और बकौल योगेश, वे अब अपने उन खेतों से प्यार करते हैं, जिन्हें वे कभी पैदावार ना होने की वजह से बेचना चाहते थे.  फसल दोगुनी होने से आमदनी बढ़ गई है. उनका जीवन स्तर सुधर गया है. गाँव में १०० से ज्यादा पक्के मकान बन गए हैं. गाँव का हर बच्चा स्कूल जाता है. शराब और क़र्ज़ की लत अपने आप काम हो गई है. महिलाओं की पिटाई लगभग बंद हो गई है. तालाब खोदने से 
२. दूसरा फार्मूला पूरे गाँव और खेतों में खेत-तालाब बना दिए जाएं. गाँव में अब छोटे-बड़े २४ तालाब हैं. योगेश और केशव इसे 'ऑपरेशन तालाब' कहते हैं. इन तालाबों ने खेतों को पानीदार और उपजाऊ बना दिया. अब यहाँ गर्मियों की छोटी-मोती फसलें और सब्जियों की खेती भी होने लगी. उनका लक्ष्य फ़िलहाल १०० तालाबों का है. 
३. तीसरा फार्मूला बरसात में गाँव से बह जाने वाले पानी को रोकने और संग्रह करने का है. वलनी गाँव की कुल जमीन का १०-१५ फ़ीसदी हिस्सा ऐसा था, जो बरसात के दौरान नालों में तब्दील हो जाता था. ये नाले जमीन को बंजर बना देते थे और जमीन के मालिक किसान परेशान थे. इन नालों के रास्तों की पहचान करके अब कुछ माध्यम आकर के तालाब बना दिए गए है. इससे पानी अब यहाँ जमा हो जाता है और वह जमीन काम में आने लगी. इससे किसानों को दोहरा फायदा हुआ. 
४. चौथा फार्मूला गाँव के गौण खनिज का अपनी मर्जी से दोहन का है. योगेश बताते हैं कि पहले ठेकेदार ३० ट्रिप की रॉयल्टी देकर ३०० ट्रिप मुरुम निकालता था. वह भी अपनी मर्जी से. इससे गाँव में कहीं भी बड़ा गड्ढा हो जाता था और कोई काम भी नहीं आता था. हमने उसे रोका और कहा हमारी मरजी से मुरुम निकाले. यह तरकीब काम आई और वलनी में कई तालाब इसके भरोसे बन गए. योगेश को उम्मीद है कि ये फार्मूला अगर हर गाँव में अपना लिया जाए और कलेक्टर इस पर ध्यान दे तो तालाब खुदवाने पर अलग से खर्च करने की जरूरत नहीं है. पेयजल और निस्तार, दोनों इसी से निपट जाएं. 
५. पांचवां फार्मूला बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने का है. गाँव में ऐसे कई खेत हैं, जो बंजर पड़े हैं. उन्हें उपजाऊ बनाने के लिये किसानों के पास पैसे नहीं हैं. हाल ही में वलनी में केशव और योगेश ने ये प्रयोग किया. एक बंजर जमीन पर तालाब की मिट्टी डलवाई और उस हिस्से में मंडवा लगाकर करेला, चौलाई, सेम, कद्दू, लौकी, तुरई जैसी बेलवर्गीय फसल लगाईं. नतीजा, चौंकाने वाला था. इतनी फसल हुई कि आसानी से कोई किसान लगत और मुनाफा निकल ले. छोटे और भूमिहीन किसानों को ये प्रयोग पसंद आये और वे इन्हें बड़े पैमाने पर करने की तैयारी कर रहे हैं. 
६. छठा फार्मूला श्रमदान का है, जो गाँव में परिवर्तन ले आया है. हर सप्ताह गाँव के कुछ लोग, बच्चे, बूढ़े और जवान चार घंटे ग्राम सफाई करते हैं. स्कूल के छात्र और अध्यापक भी. इससे गाँव में घर के आसपास ही कूड़ा फ़ैलाने की प्रवत्ति पर रोक लगने लगी है. खासकर प्लास्टिक पन्नी से होने वाला कचरा काम हो गया है.
७. सातवाँ फार्मूला टिकोमा गौड़ी चौड़ी के बारहमासी फूलदार पौधे लगाने का है, ताकि गाँव सुन्दर दिखे. वलनी ने सफलतापूर्वक इस काम को पूरा किया है और इसके लिये बेकार पड़ी चीजों से कठघरा भी तैयार किया है, ताकि पशु उसे खा ना जाएं. 
८. आठवां फार्मूला ग्राम में हर घर में शौचालय का है. यह इस गाँव का अद्भुत प्रयोग था और श्रमदान से चलते अब यहाँ ९९ फ़ीसदी घरों में शौचालय हैं. इसके लिये गाँव को राष्ट्रपति से निर्मल ग्राम पुरस्कार भी मिला. 
९. नौवां फार्मूला हर घर में पेयजल के लिये नल का था. पंचायत ने इसके लिये टंकी बनाई और फिल्टर, शुद्ध जल सप्लाई किया जाता है. इससे लोगों के स्वास्थ्य में सुधार तो आया ही, पानी के लिये आपसी झगड़े भी बंद हो गए. 
१०. दसवां फार्मूला पीढ़ी दर पीढ़ी इस गहरे ज्ञान को बनाये रखने के लिये दी जाने वाली सीख है, ताकि भविष्य में भी ये सब चलता रहे. 
योगेश अनेजा इस फार्मूले को कहते हैं : १-१००-१०००-१००००.
उनकी परिभाषा में एक का मतलब हर सप्ताह एक घंटे का श्रमदान. सौ का मतलब १०० छोटे-बड़े तालाब. १००० का अर्थ एक हज़ार टिकोमा गौड़ी-चौड़ी के पेड़ लगाना, ताकि तितली, भौंरे, मधुमक्खी समेत मनुष्य-मित्र कीट बचे रहे. १०००० के मायने १०००० बेलवर्गीय खेती के मंडवे पूरे गाँव में तैयार करना, ताकि कोई भूखा ना रहे. वे कहते हैं देश के पॉँच लाख गाँव के बीच वलनी एक दारोगा की तरह खड़ा है कि पानी की लूट रोकी जा सके.

वलनी गाँव की कथा के ये कुछ अध्याय हैं. पूरी महागाथा सुनने और गुनने के लिये आपको आना होगा इस गाँव तक. ग्राम तालाब की लड़ाई अभी पूरी नहीं हुई है. तहसीलदार और कलेक्टर ने हाथ खड़े कर दिए हैं. कहते हैं सरकारी जमीन पर पंचायत को कब्ज़ा दिलाने के लिये बड़ी अदालत में मुक़दमा लड़ना पड़ेगा. सत्य के आग्रही इसे नहीं मानते. वे कहते हैं : शायद, जमींदार का दिल बदल जाए और वह अपना अवैध कब्ज़ा छोड़ दे. इन दिनों वे तालाब की पार तैयार करने में जुटे हैं. 

एक माह में बन गए १२० शौचालय 
किसी भी गाँव की साफ-सफाई में शौचालय का होना बेहद महत्त्वपूर्ण है. अगर गाँव वाले खुले में शौच करें तो गन्दगी घर, शरीर और दिमाग में कब्ज़ा कर लेती है. वलनी तो आदर्श गाँव योजना में शामिल गाँव था. लेकिन, उसकी हालत भी दूसरे गाँव की तरह थी. लोग खुले में शौच करते. हमेशा बदबू आना गाँव का अभिशाप था. लेकिन, क्या हो सकता था? सब चाहते थे कि घर में ही शौचालय हो, पार सबसे बड़ी समस्या थी पानी का अभाव. एक बार शौचालय जाने में दो बाल्टी पानी खर्च होता. गाँव का एकमात्र हैण्डपम्प सैकड़ों बार चलने पर एक बाल्टी पानी देता. ये सबके बूते के बाहर था. तालाब के काम के लिये योगेश और केशव एक दिन बीडीओ के पास गए तो उन्होंने बताया कि निर्मल ग्राम पुरस्कार मिलने वाला है. एक लाख रुपये मिलेंगे. लेकिन, यहाँ के किसी गाँव को नहीं मिल सकता क्योंकि किसी भी गाँव में १०० फीसदी शौचालय नहीं हैं. योगेश और केशव ने कहा, हमारे गाँव को मिल सकता है. बीडीओ चकित. बोले-नहीं मिल सकता, क्योंकि ९८ फ़ीसदी घरों में शौचालय नहीं हैं. योगेश-केशव ने कहा-बन जाएंगे. बीडीओ ने कहा-अगर ऐसा हो जाए तो क्या बात है. मैं अपनी जेब से ५००० रुपये दूंगा. योगेश-केशव गाँव लौट आये. गाँव वालों के साथ बैठक की. गांववालों ने कहा-नहीं हो सकता. सब हो जाए, पर मिस्त्री कहाँ है? बाकी का पैसा कहाँ से आएगा. योगेश ने अपनी जेब से २०००० रुपये देने का वादा किया तो तब तक उप सरपंच बन चुके केशव ने पंचायत से ईंट, रेत, सीमेंट देने की बात पक्की कर दी. हर शौचालय पर सरकारी हिसाब से ४०० रुपये अनुदान भी मिलना था. हर शौचालय बनाने पर कुल खर्च ४००० रुपये आना था. यानी तकरीबन १५०० रुपये हर घर के मालिक को लगाने थे. वे तैयार हो गए. अब सवाल मिस्त्री का था. योगेश ने इस समस्या का हल भी निकल लिया. कहा- वे नागपुर से मिस्त्री लाएंगे, पर ५ बाई ५ बाई ५ का गड्ढा खुद खोदना होगा और मिस्त्री के साथ कुली का काम करवाना होगा. सब तैयार हो गए. फिर क्या था-रोज़ सुबह नागपुर के गिट्टीखदान चौराहे से योगेश अपनी मारुति-८०० कर में ५ मिस्त्री लादकर गाँव तक लाते और गाँव के दो मिस्त्री. सात मिस्त्री रोज़ गाँव में हर दिन सात शौचालय तैयार कर देते. महीना बीतते-बीतते १२० शौचालय तैयार हो गए. बीडीओ और अन्य अफसर आए तो अचरज से भर गए. लेकिन, योगेश और केशव निर्मल ग्राम पुरस्कार लेने नहीं गए. उस सरपंच को भेजा, जो राजनीतिक रंजिश में सारे कामों में पलीता लगाए हुए था. वह लौटा तो इस टीम  का फैन बन गया. वह दिन था और आज का दिन है, गाँव में कोई गुट नहीं बचा. हाल ही में आदर्श गाँव समिति की बैठक में इस उपलब्धि पर इतनी तालियाँ बजीं कि बहुप्रशंसित करोड़पति गाँव हिवरे बाज़ार के करता-धर्ता पोपटराव पवार भी शरमा गए. उनके गाँव में तीन माह में तीन शौचालय ही बन पाए हैं. बस केशव डम्भारे  को एक ही दुःख है कि दो घर अब भी छूट गए हैं. 








(सुनील सोनी स्वभाव से कवि हैं और पेशे से पत्रकार. नागपुर से ही प्रकाशित हिंदी दैनिक लोकमत समाचार में मुख्य उपसंपादक हैं और जन-विषयों पर खूब लिखते हैं. उनसे ९९२२४२७७२८ पर संपर्क किया जा सकता है.)



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हमने तरक्की की नई राह ढूंढ ली है....
केशव डम्भारे से साक्षात्कार 

केशव डम्भारे अभी ५४-५५ के हैं. २४ साल पहले जब नौसेना की नौकरी छोड़कर वे आपने गाँव पहुंचे तो पानी की विकराल समस्या से उनका आमना-सामना हुआ. तबसे वे लगातार अपने साथियों के साथ मिलाकर ग्राम-जल के पुनर्जीवन के लिये लड़ रहे हैं. वे विज्ञान में किसी कारण डिग्री पूरी नहीं कर पाए, पर ग्रामजीवन का विज्ञान उन्हें खूब आता है. उन्हें मालूम है कि किस रसायन में किस तत्त्व के मिलन से ऊर्जा निकलेगी और किस तत्त्व को मिलाने से विस्फोट होगा. वे फ़िलहाल वलनी गाँव के उपसरपंच हैं और राजनितिक-समाजकर्म ही उनकी जिंदगी का प्रमुख उद्देश्य है. राजनीति के सारे पैंतरे और दांव-पेंच उन्हें पता हैं, पर वे सार्वजानिक जीवन की शुचिता में विश्वास रखते हैं. जनता के जागरण पर उन्हें अगाध भरोसा है और यही कारण है कि वे गाँधी, विनोबा के रास्तों पर चलना चाहते हैं. उनके सब्र ने उनके राजनीतिक विरोधियों को भी उनका मित्र बना दिया और यह थाती उन्हें उनके पिता दिवंगत रामचन्द्रजी गणपतराव डम्भारे से मिली. उनके पिता कई सालों तक निर्विरोध गाँव के सरपंच थे. अब वे अपने राजनीतिक विरोधियों को भी निर्विरोध चुनवाने का माद्दा रखते हैं. वलनी में ग्राम तालाब का पुनर्जीवन और उसे ग्राम सम्पदा बनाना उनका लक्ष्य है. योगेश अनेजा और केशव डम्भारे एक गाड़ी के दो पहिये हैं, जो नए-नए प्रयोगों में दिलचस्पी रखते हैं. उनके प्रयोगों से ही गाँव इस मुकाम तक पहुँच गया है. उनसे सीधी बात करके इसे समझा जा सकेगा : 

- आखिर ऐसा क्या हुआ कि गाँव लौट आए? 
-अपना गाँव सबसे अच्छा हो, हमेशा से मेरा सपना था. नौसेना छोड़कर यहाँ पहुंचा तो असलियत सामने आई कि हम कितने पिछड़े हैं. यहाँ पानी की भरी किल्लत थी. पशुओं के लिए चारा नहीं था. खेत सूखे थे और पैदावार अच्छी नहीं थी. लागत से आमदनी हमेशा कम थी. सीधे कारण थे - सिंचाई सुविधा का ना होना, मिट्टी की उर्वरता का नष्ट होना और उसे बढ़ाये जाने के प्रयास ना किये जाना आदि. मैंने इस मामले में जनजागरण करने का प्रयास किया और पहला काम तालाब को फिर से संवारना था. 

-मालगुजार इतना प्रभावी है और व्यवस्था भी आपके खिलाफ है, लेकिन आपकी इतनी लम्बी लड़ाई कभी टूटी नहीं?
-हम सत्याग्रही थे. हम कोई गलत काम नहीं कर रहे थे. हम आन्दोलन ऐसे करते थे कि मन, विचार और शरीर से कभी हिंसा ना हो. इसलिए हमारी ओर से उनको कभी मौका नहीं मिला. फिर भी हम सात लोगों को दलित प्रताड़ना कानून के झूठे मुक़दमे में फंसाया तो हम सच्चाई के कारण अंततः छूट गए. 

-तालाब की मिट्टी खेत में डालने का ख्याल कैसे आया?
-ये पुराना तरीका था. बड़े-बूढ़े बताते थे कि बेल वाली सब्जी लगनी हो तो तालाब की मिट्टी ले आओ. हर किसान साल में एक बार दो-चार बैलगाड़ी मिट्टी अपने खेत में डालता और टमाटर, मिर्ची, सेम, कद्दू, लौकी बो देता. पौधे आते तो उसे खेत में लगा देता. लेकिन जिस हिस्से में ये मिट्टी पड़ती, वहां होने वाला अन्न काफी स्वादिष्ट और अच्छा होता था. यहीं से ये ख्याल आया कि पूरे खेत में मिट्टी दल दी जाएगी तो पूरी फसल अच्छी हो जाएगी. ये बात सच साबित हुई. पैदावार बढ़ गई. फिर पानी बढ़ा तो इसमें और इजाफा हो गया. 

-आपने गाँव में क्या बदलते देखा?
-लोगों का जीवन स्तर सुधर गया. आमदनी अच्छी हो गई तो रहन-सहन, खाना-पीना, पढाई-लिखाई, सब चीजों का स्तर बढ़ गया. धड़धड़ पक्के घर बन गए.

-सिर्फ आर्थिक विकास हुआ या सामाजिक भी?
-हर स्तर पर प्रगति दिखती है. गाँव की शराब की दुकानें बंद हो गईं. लोगों का शराब पीना कम हो गया. महिलाओं के साथ मारपीट बंद हो गई. बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पढ़ने लगे. लड़कियां पढ़ने लगीं. हर बच्ची स्कूल जाती है. लोगों में वैमनस्य कम हुआ है. यहाँ तक कि १२-१३ भूमि हीन परिवारों का जीवन स्तर भी बढ़ा है. उनमें से कुछ ने जमीन भी खरीद ली है. लोग अब खेत बेचने की बात नहीं करते. अब वे कहते हैं, हम अच्छे और हमारे खेत अच्छे. खेती के प्रति ये जो प्रेम बढ़ा है, वो सामाजिक तरक्की का द्योतक है. 

-कुछ कमी रह गई? 
-हाँ. अभी भी तालाब हासिल करना बाकी है. हम नागपुर जिले के एकमात्र आदर्श गाँव हैं, पर यहाँ अब भी दो घरों में संडास (शौचालय) नहीं हैं. वे खुले में दिशा मैदान जाते हैं. लेकिन धीरे-धीरे परिवर्तन की हवा चल रही है. वो गति पकड़ेगी तो देश बदल जायेगा. हमने तरक्की की नई राह ढूंढ ली है.

-सुनील सोनी 

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हमारा फार्मूला चाल गया तो सारी व्यवस्था बदल जाएगी
योगेश अनेजा से साक्षात्कार

योगेश अनेजा वलनी गाँव के रूपांतरण में भागीदार और साक्षी रहे हैं. वे हालाँकि खुद को उत्प्रेरक भी कहलाना पसंद नहीं करते, पर हमारी नज़र में बदलाव के मूल तत्त्व वे ही रहे हैं. अच्छा और प्रयोगशील समाज का निर्माण उनकी कल्पना है. वलनी में ऐसे समाज के पहले दौर के प्रयोग वे कर रहे हैं. गाँधी, तोलस्तोय उनकी प्रेरणा हैं. वे नागपुर में मूलतः ऑटो पार्ट्स का छोटा सा व्यवसाय करते हैं, पर समाजकर्म उनका मुख्य काम है. 

कोई १८ साल पहले की बात है. वाणिज्य से ताज़ा-ताज़ा ग्रेजुएट  एक नौजवान नागपुर शहर के महल इलाके में एक जनसभा के बाहर अपनी कार के हुड पर बैठकर उस वक्ता को एकटक घूरे जा रहा था. ५०-६० के बीच का धोती-कुरता पहने वह वक्ता गाँधी टोपी लगाए हुए सूचना के अधिकार और भ्रष्टाचार के खिलाफ भाषण दे रहा था. सभा ख़त्म हुई. अगला भाषण उमरेड तहसील के किसी गाँव में था. नौजवान उनके पीछे चल पड़ा और फिर उसका भाषण सुना. उसे भाषण में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उस आदमी में थी. आख़िरकार आधी रात को सभा ख़त्म होने के बाद उसने उनको पकड़ ही लिया और अपनी कार में नागपुर ले आया. लेकिन, नौजवान का उद्देश्य पूरा ही नहीं हो पाया, क्योंकि उस बुजुर्ग ने उसे कहा कि वह घर लौट जाए और सबसे पहले अपने माता-पिता की सेवा करे. उससे वक्त बच जाए तो आसपास नज़र डाले, कई काम ऐसे हैं, जो समाज के लिये वह कर सकता है. जरूरी नहीं कि ये काम करने के लिये वह उनके गाँव ही आएं. नौजवान आसमान से सीधे धरती पर आ गिरा, पर उसका सपना टूटा नहीं. सिर्फ दिशा नई मिल गई. वे बुजुर्ग थे अन्ना हजारे; और वह नौजवान था योगेश अनेजा. 

योगेश मृदा सर्वेक्षण एवं संवर्धन संसथान में मुख्य लेखा अधिकारी का बेटा था, जो उसे कभी-कभी बड़ी निराशा के भाव में बताते थे कि कैसे सरकार जनता के पैसे बरबाद करके इस विभाग को पाल रही है और ये किसानों के लिये कोई काम नहीं करता. सिर्फ झूठी टेबल रिपोर्ट देकर कृषि वैज्ञानिक और अफसर पैसा बना रहे हैं. असली समस्याओं से उनका कभी वास्ता ही नहीं पड़ा है. यही वह बात थी, जो योगेश के दिलो-दिमाग में जमी रह गई और उसे अपनी आशा का केंद्र अन्ना हजारे नज़र आए. भागकर रालेगण सिद्धि पहुँच गए. फिर पिता के देहांत ने घर की जिम्मेदारियां सिर पर दल दीं तो दो-तीन साल तक समाजकर्म का भूत आसपास फटका भी नहीं. अन्ना ने नई दृष्टि दी तो जैसे ही मोहलत मिली, योगेश अपने दोस्त योगेश वानखेड़े को लेकर उमरेड तहसील के आदर्श ग्राम सुरगाँव पहुँच गए. 'आदर्श' की हकीकत पल्ले पड़ी, तब समझ में आया कि आस-पास का ही कोई गाँव ढूँढा जाए. सो, वलनी जा पहुंचे. १९९७ में वलनी में असली काम की शुरुआत हुई. एक समय ऐसा भी था कि वे सब कुछ छोड़-छाड़कर ग्रामवासी ही हो गए, पर अन्ना की कही आखिरी बात याद थी, ''जब तुम्हारा काम एक जगह पूरा हो जाए, तो उसे वहां के लोगों को सौंपकर आगे बढ़ जाना.'' योगेश भी आपने पहले काम के अंतिम पड़ाव पर हैं. उनके काम को उनकी ही जबानी सुनें तो आनंद आएगा. तो सुनिए : 

-कैसे लगी इस काम की लगन? 
-पिताजी (दिवंगत कश्मीरीलालजी अनेजा) कई बार किसानों की दुर्दशा के बारे में बताया करते थे. बस, पिताजी की बात दिमाग में रह गई. जब समझ में आया कि किसान ही हमारे देश का अन्नदाता है और उसकी ही हालत बुरी है तो दिल ने कहा कि कुछ करना पड़ेगा. अन्ना हजारे उस समय आदर्श थे, पर उनकी सीख ने एक बात समझा दी कि काम की शुरुआत आसपास से ही होनी चाहिए. तब सरकारी तंत्र से कुछ नफरत हो गई थी. लगता था कि उन्हें जो जिम्मेदारी सौंपी गई है, वे उसे नहीं निभा रहे हैं. उसका अहसास भी उनको करवाना था. 

-वलनी में जो कुछ हो रहा है, वह अद्भुत है. यह बात समझ में कैसे आई कि करना क्या है?
-ये सब बातें तो केशवजी और गांववालों से ही सीखीं. गाँव वालों को सारे देशज और परंपरागत तरीके पता थे. लेकिन उसे करने का साहस और पहल नहीं थी. पहल की तो साहस भी आ गया.

-कैसे किया? 
-ये बड़ा मजेदार किस्सा है. मैं और योगेश, जब १९९७ की मई की तपती दोपहर में वलनी पहुंचे तो केशवजी और उनके साथियों-नत्थूजी फलके, तुलसीराम, मोहन डम्भारे गुरूजी, कमलाकर चौधरी आदि से मुलाकात हो गई. तालाब पर जाकर पता लगा कि वे तालाब पर मालगुजार के कब्जे को लेकर चिंता में हैं. तालाब की दुर्गति देखकर हमें भी गुस्सा आया. नया-नया जोश उफान मार रहा था. हमने कहा कल से तालाब खोदने का काम शुरू करते हैं. सबने हाँ कर दी. हमें लगा कि एक दिन काम करते देखेंगे तो बाकी गांववाले अगले दिन आ ही जाएंगे. अगले दिन मैंने पास के गाँव से एक दिन के ८०० रुपये के हिसाब से ट्रैक्टर ट्राली तय कर दी और सातों आदमी लगे तालाब खोदने. शाम तक दो ट्राली मिट्टी खोद पाए. अगले दिन काम का वादा कर नागपुर रवाना हुए तो बदन बुखार से ताप रहा था. हालत खराब थी. कभी ऐसा काम किया नहीं था. अगले दिन तालाब पर पहुंचे तो फिर हम दो को मिलाकर वही सात लोग. केशवजी ने बताया-कोई गाँव वाला आने को तैयार नहीं है. बड़ा झटका लगा. मेरी तो हालत नहीं थी काम करने की. मैं ट्रैक्टर वाले के पास गया. उसे उस दिन के भी ८०० रुपये दिए और कहा कि तू मत आना. तेरा दिन खराब किया, उसके पैसे रख ले. वापस आने पर केशवजी से चर्चा की तो उन्होंने कहा कि एकदम से बड़ा काम हाथ में ले लिया. पहले छोटे-छोटे काम करते हैं. उनसे पुछा कि पहले क्यों नहीं बताया तो जवाब मिला कि आप लोग जितने जोश में थे, उसकी लाज तो रखनी ही थी. फिर गाँव का काम था. बहरहाल, अगले कुछ माह तक वृक्षारोपण, सड़क सुधर, साफ-सफाई जैसे काम करते रहे. ये बड़ी उल्लेखनीय बात थी कि जब गाँव पहुंचे तो पहचान ना होने के बावजूद केशव जी या गांववालों ने हमें भगाया नहीं. उलटे हमारी बचकानी हरकतों को समर्थन दिया. उनको सब तरीके मालूम थे. उन्होंने हमारी परीक्षा नहीं ली, हमें सिखाया. ये उनका बड़प्पन है.

-इतने साल बाद क्या लगता है? 
-हम कुछ कर पाने में सफल हैं. इतने सारे फार्मूले बन गए हैं. हमारी चिंता हमेशा से किसान रहा और उसका भला हो रहा है. बस ये फार्मूले देश के सारे गरीब किसानो तक पहुँच जाएं और वे सफल हो जाएं.

-इस काम में काफी सोच-विचार लगा होगा?
-हमने सोचा कि ऐसे तरीके आजमाए जाएं, जो गरीब से गरीब किसान के बूते में हो. हमने उसकी नज़र से देखकर ही तरीके ढूंढे. अंधकार से भरी गुफा से बाहर निकलने का रास्ता खोजा. यह मेरा सौभाग्य ही है कि हम इस प्रक्रिया के अंग हैं. मैं बड़ा आस्तिक हूँ और मानता हूँ कि ऊपरवाला हमसे ये काम करवा रहा है. हर मुसीबत के समय उसने समाधान भी दिखा दिया. यह भी है कि मैं किसी देवी-देवता को नहीं मानता. मेरे लिये तो किसान ही भगवान है. वह हमारा अन्नदाता है. हम उसी की पूजा करते हैं. 

-क्या ये फार्मूले सफल हो पायेंगे?
-बस हमको करके दिखाना है. ये चिंगारी जंगल की आग की तरह फैलेगी. ये फार्मूले चल गए तो पूरी व्यवस्था बदल जाएगी. 

-क्या सारी समस्याएं इन फार्मूलों से हाल हो जाएंगी ? 
-हमें वह फार्मूला अभी तक नहीं मिला,जिससे हम इस समस्या से बाहर निकल जाएं. हम कोई नया तरीका ईजाद करना चाहते हैं.

-क्या अहिंसक सत्याग्रह पर चलते हुए लगा नहीं कि आन्दोलन के उग्र या मौजूदा तरीके अपना लिये जाएँ?
-कई बार लगा कि बड़ा कष्ट है. आन्दोलन के आम तरीके अपना लिये जाएं. लेकिन, दिल से आवाज आती कि नहीं. हम सरकारी कर्मचारियों में काम करने हम सरकारी अफसरों और कर्मचारियों में काम करने की भावना जगाना चाहते हैं, ताकि उस आम जनता, खासकर किसान, के काम हो जाएं जो बड़े कष्ट में है. 

-यानी भ्रष्टाचार आपको बड़ा मुद्दा लगता है?
-नहीं, ये भ्रष्टाचार नहीं है. ये रास्ते का भटकाव है. हम सभी लोगों ने अपने सुख और शांति की खोज किसी दूसरी चीज में ही खोजनी शुरू कर दी है. हमारी नैतिक जिम्मेदारी और जवाबदेही की भावना आडम्बर में दब गई है. हम कोशिश कर रहे हैं कि वह भावना फिर उभर कर आए. 

-इन सब चीजों से निपटे हुए कभी राजनीतिक दल बनाने का ख्याल नहीं आया?
-ख्याल आया, पर ये कि सारे राजनीतिक दल हमारा रास्ता अपना लें. हम जो काम कर रहे हैं, वे उसको अपना लेंगे तो सारी समस्या ही दूर हो जाएगी. 

-सुनील सोनी

(यह फाल्गुन विश्व के अप्रैल अंक की आवरण कथा है.)

2 टिप्‍पणियां:

  1. bahut achchha laga padh kar. dhanyawad. parantu sangathanik mudon, yogeshji kya apane paise lagate the ya koi funding thee ityadi, ke charcha bhi hoti to aur achha lagata. baharhal achchha laga.
    Rajinder chaudhary, Rohtak haryana

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  2. keyogeshji purikahani padhakar itcha hui ki apke sath valani vasiyo se bat karu .aap hamare khetme aaye the ,sajiv kheti ,G M seed ke bareme sabhiko janakari hona aaj bahut jaruri hai.

    Vasant Futane rawala ,satnoor th.warud 444907
    o7229 238171 ,202147

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