रविवार, 7 अक्तूबर 2012

इस बार आवरण पर ''बापू'' हैं, लेकिन आँखें झुकाए हुए हैं !!




सत्य के प्रयोग - भाग 1


जन्म
जान पड़ता है कि गाँधी-कुटुम्ब पहले तो पंसारी का धंधा करने वाला था । लेकिन मेरे दादा से लेकर पिछली तीन पीढियों से वह दीवानगीरी करता रहा हैं। ऐसा मालूम होता हैं कि उत्तमचंद गाँधी अथवा ओता गाँधी टेकवाले थे । राजनीतिक खटपट के काऱण उन्हें पोरबन्दर छोड़ना पड़ा था, और उन्होनें जूनागढ़ राज्य में आश्रय लिया था । उन्होनें नवाब साहब को बाये हाथ से सलाम किया । किसी ने इस प्रकट अविनय का कारण पूछा, तो जवाब मिला : "दाहिना हाथ तो पोरबन्दर को अर्पित हो चुका हैं।"
ओता गाँधी के एक के बाद दूसरा यों दो विवाह हुए थे। पहले विवाह से उनके चार लड़के थे और दूसरे से दो । अपने बचपन को याद करता हूँ तो मुझे ख्याल नहीं आता कि ये भाई सौतेले थे । इनमें पाँचवे करमचन्द अथवा कबा गाँधी और आखिरी तुलसीदास गाँधी थे। दोनों भाइयों ने बारी-बारी से पोरबन्दर में दीवान का काम किया । कबा गाँधी मेरे पिताजी थे । पोरबन्दर की दीवानगीरी छोड़ने के बाद वे राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य थे । बाद में राजकोट में और कुछ समय के लिए वांकानेर में दीवान थे । मृत्यु के समय वे राजकोट दरबार के पेंशनर थे ।
कबा गाँधी के भी एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। पहले दो से दो कन्यायें थी ; अन्तिम पत्नी पुतलीबाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे । उनमें से अन्तिम मैं हूँ।
पिता कुटुम्ब-प्रेमी, सत्यप्रिय, शूर , उदार किन्तु क्रोधी थे । थोड़े विषयासक्त भी रहे होंगे । उनका आखिरी ब्याह चालीसवें साल के बाद हुआ था । हमारे परिवार में और बाहर भी उनके विषय में यह धारणा थी कि वे रिश्वतखोरी से दूर भागते हैं और इसलिए शुद्ध न्याय करते हैं। राज्य के प्रति वे वफादार थे । एक बार प्रान्त के किसी साहब ने राजकोट के ठाकुर साहब का अपमान किया था । पिताजी ने उसका विरोध किया । साहब नाराज हुए, कबा गाँधी से माफी मांगने के लिए कहा । उन्होंने माफी मांगने से इनकार किया । फलस्वरूप कुछ घंटों के लिए उन्हें हवालात में भी रहना पड़ा । इस पर भी जब वे न डिगे तो अंत में साहब ने उन्हे छोड़ देने का हुकम दिया ।
पिताजी ने धन बटोरने का लोभ कभी नहीं किया । इस कारण हम भाइयों के लिए बहुत थोड़ी सम्पत्ति छोड़ गये थे ।
पिताजी का शिक्षा केवल अनुभव की थी । आजकल जिसे हम गुजराती की पाँचवीं किताब का ज्ञान कहते हैं, उतनी शिक्षा उन्हें मिली होगी। इतिहास-भूगोल का ज्ञान तो बिलकुल ही न था । फिर भी उनका व्यावहारिक ज्ञान इतने ऊँचे दरजे का था कि बारीक से बारीक सवालों को सुलझाने में अथवा हजार आदमियों से काम लेने में भी उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी। धार्मिक शिक्षा नहीं के बराबर थी, पर मन्दिरों में जाने से और कथा वगैरा सुनने से जो धर्मज्ञान असंख्य हिन्दुओं को सहज भाव से मिलता हैं वह उनमें था । आखिर के साल में एक विद्वान ब्राह्मण की सलाह से, जो परिवार के मित्र थे, उन्होंने गीता-पाठ शुरु किया था और रोज पूजा के समय वे थोड़े बहुत ऊँचे स्वर से पाठ किया करते थे ।
मेरे मन पर यह छाप रही हैं कि माता साध्वी स्त्री थी । वे बहुत श्रद्धालु थीं । बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करती । हमेशा हवेली (वैष्णव-मन्दिर) जाती । जब से मैंने होश संभाला तब से मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास का व्रत तोड़ा हो । वे कठिन से कठिन व्रत शुरु करती और उन्हें निर्विघ्न पूरा करती । लिये हुए व्रतों को बीमार होने पर भी कभी न छोड़ती । ऐसे एक समय की मुझे याद हैं कि जब उन्होंने चान्द्रायण का व्रत लिया था । व्रत के दिनों में वे बीमार पड़ी , पर व्रत नहीं छोड़ा । चातुर्मास में एक बार खाना तो उनके लिए सामान्य बात थी । इतने से संतोष न करके एक चौमासे में उन्होंने तीसरे दिन भोजन करने का व्रत लिया था । लगातार दो-तीन उपवास तो उनके लिए मामूली बात थी । एक चातुर्मास में उन्होंने यह व्रत लिया था कि सूर्यनारायण के दर्शन करके ही भोजन करेंगी । उस चौमासे में हम बालक बादलों के सामने देखा करते कि कब सूरज के दर्शन हो और कब माँ भोजन करें । यह तो सब जानते हैं कि चौमासे में अक्सर सूर्य के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं । मुझे ऐसे दिन याद हैं कि जब हम सूरज को देखते और कहते, "माँ-माँ, सूरज दीखा" और माँ उतावली होकर आती इतने में सूरज छिप जाता और माँ यह कहती हुई लौट जाती कि "कोई बात नहीं, आज भाग्य में भोजन नहीं हैं" और अपने काम में डूब जातीं।
माता व्यवहार-कुशल थीं । राज-दरबार की सब बातें वह जानती थी । रनिवास में उनकी बुद्धि की अच्छी कदर होती थी । मैं बालक था । कभी कभी माताजी मुझे भी अपने साथ दरबार गढ़ ले जाती थी । 'बा-मांसाहब' के साथ होने वाली बातों में से कुछ मुझे अभी तक याद हैं।
इन माता-पिता के घर में संवत् 1925 की भादों बदी बारस के दिन, अर्थात 2 अक्तूवर, 1869 को पोरबन्दर अथवा सुदामापुरी में मेरा जन्म हुआ।
बचपन मेरा पोरबन्दर में ही बीता । याद पड़ता हैं कि मुझे किसी पाठशाला में भरती किया गया था । मुश्किल से थोड़े से पहाड़े मैं सीखा था । मुझे सिर्फ इतना याद हैं कि मैं उस समय दूसरे लड़को के साथ अपने शिक्षकों को गाली देना सीखा था । और कुछ याद नहीं पड़ता । इससे मैं अंदाज लगाता हूँ कि मेरी स्मरण शक्ति उन पंक्तियों के कच्चे पापड़-जैसी होगी , जिन्हे हम बालक गाया करते थे । वे पंक्तियाँ मुझे यहाँ देनी ही चाहिए:
एकड़े एक, पापड़ शेक पापड़ कच्चो, --- मारो ---- ।
पहली खाली जगह में मास्टर का नाम होता था । उसें मैं अमर नहीं करना चाहता । दूसरी खाली जगह में छोड़ी गई गाली रहती थी, जिसे भरने की आवश्यकता नहीँ।

बचपन
पोरबन्दर से पिताजी राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य बनकर राजकोट गये । उस समय मेरी उमर सात साल की होगी । मुझे राजकोट की ग्रामशाला में भरती किया गया । इस शाला के दिन मुझे अच्छी तरह याद हैं। शिक्षकों के नाम-धाम भी याद हैं। पोरबन्दर की तरह यहाँ की पढ़ाई के बारे में भी ज्ञान के लायक कोई खास बात नहीं हैं । मैं मुश्किल से साधारण श्रेणी का विद्यार्थी रहा होऊंगा। ग्रामशाला स उपनगर की शाला में और वहाँ से हाईस्कूल में । यहाँ तक पहुँचने में मेरा बारहवाँ वर्ष बीत गया । मुझे याद नहीं पड़ता कि इस बीच मैंने किसी भी समय शिक्षकों को धोखा दिया हो । न तब तक किसी को मित्र बनाने का स्मरण हैं । मैं बहुत ही शरमीला लड़का था । घंटी बजने के समय पहुँचता ऐर पाठशाला के बन्द होते ही घर भागता । 'भागना' शब्द मैं जान-बूझकर लिख रहा हूँ, क्योंकि बातें करना मुझे अच्छा न लगता था । साथ ही यह डर भी रहता था कि कोई मेरा मजाक उड़ायेगा तो ?
हाईस्कूल के पहले ही वर्ष की, परीक्षा के समय की एक घटना उल्लेखनीय हैं । शिक्षा विभाग के इन्सपेक्टर जाइल्स विद्यालय की निरीक्षण करने आये थे । उन्होंने पहली कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के पाँच शब्द लिखाये । उनमें एक शब्द 'केटल' (kettle) था । मैंने उसके हिज्जे गलत लिखे थे ।
शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया । लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा ? मुझे यह ख्याल ही नहीं हो सका कि शिक्षक मुझे पासवाले लड़के की पट्टी देखकर हिज्जे सुधार लेने को कहते हैं । मैने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें । सब लड़कों के पाँचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेवकूफ ठहरा । शिक्षक ने मुझे मेरी बेवकूफी बाद में समझायी लेकिन मेरे मन पर कोई असर न हुआ । मैं दुसरे लड़को की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी न सीख सका ।
इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम न हुआ । बड़ों के दोष न देखने का गुण मुझ में स्वभाव से ही था । बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मुझे मालूम हुए थे । फिर भी उनके प्रति मेरा आदर बना ही रहा । मैं यह जानता था कि बड़ों का आज्ञा का पालन करना चाहिये । वे जो कहें सो करना करे उसके काजी न बनना ।
इसी समय के दो और प्रसंग मुझे हमेशा याद रहे हैं। साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था । सबक याद करना चाहिये, उलाहना सहा नहीं जाता, शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं, इसलिए मैं पाठ याद करता था । लेकिन मन अलसा जाता, इससे अक्सर सबक कच्चा रह जाता । ऐसी हालत में दूसरी कोई चीज पढ़ने की इच्छा क्यों कर होती? किन्तु पिताजी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी । नाम था श्रवण-पितृभक्ति नाटक । मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया । उन्हीं दिनों शीशे मे चित्र दिखाने वाले भी घर-घर आते थे । उनके पास भी श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को काँवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता हैं। दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा । मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिये । श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद हैं । उस ललित छन्द को मैंने बाजे पर बजाना भी सीख लिया था । मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिताजी ने एक बाजा दिया भी दिया था ।
इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आयी थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। हरिशचन्द का आख्यान था । उस बारबार देखने की इच्छा होती थी । लेकिन यों बारबार जाने कौन देता ? पर अपने मन में मैने उस नाटक को सैकड़ो बार खेला होगा । हरिशचन्द की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते ? यह धुन बनी रहती । हरिशचन्द पर जैसी विपत्तियाँ पड़ी वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य हैं । मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी विपत्तियाँ हरिशचन्द पर पड़ी होगी। हरिशचन्द के दुःख देखकर उसका स्मरण करके मैं खूब रोया हूँ । आज मेरी बुद्धि समझती हैं कि हरिशचन्द कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था । फिर भी मेरे विचार में हरिशचन्द और श्रवण आज भी जीवित हैं । मैं मानता हुँ कि आज भी उन नाटकों को पढ़ूं तो आज भी मेरी आँखों से आँसू बह निकलेंगे ।

बाल-विवाह
मैं चाहता हूँ कि मुझे यह प्रकरण न लिखना पड़ता । लेकिन इस कथा में मुझको ऐसे कितने कड़वे घूंट पीने पड़ेंगे । सत्य का पुजारी होने का दावा कर के मैं और कुछ कर ही नहीं सकता । यह लिखते हुए मन अकुलाता हैं कि तेरह साल की उमर में मेरा विवाह हुआ था । आज मेरी आँखो के सामने बारह-तेरह वर्ष के बालक मौजूद हैं। उन्हें देखता हूँ और अपने विवाह का स्मरण करता हूँ तो मुझे अपने ऊपर दया आती हैं और इन बालकों को मेरी स्थिति से बचने के लिए बधाई देने की इच्छा होती हैं । तेरहवें वर्ष में हुए अपने विवाह के समर्थन में मुझे एक भी नैतिक दलील सूझ नहीं सकती ।
पाठक यह न समझे कि मैं सगाई की बात लिख रहा हूँ । काठियावाड में विवाह का अर्थ लग्न हैं, सगाई नहीं । दो बालको को ब्याह के लिए माँ-बाप के बीच होनेवाला करार सगाई हैं । सगाई टूट सकती हैं । सगाई के रहते वर यदि मर जाए तो कन्या विधवा नहीं होती। सगाई में वर-कन्या के बीच कोई सम्बन्ध नहीं रहता । दोनों को पता नहीं होता । मेरी एक-एक करके तीन बार सगाई हुई थी । ये तीन सगाईयाँ कब हुई, इसका मुझे कुछ पता नहीं । मुझे बताया गया था कि दो कन्यायें एक के बाद एक मर गयी । इसीलिए मैं जानता हूँ कि मेरी तीन सगाईयाँ हुई थी । कुछ ऐसा याद पड़ता हैं कि तीसरी सगाई कोई सात साल की उमर में हुई होगी । लेकिन मैं नहीं जानता कि सगाई के समय मुझ से कुछ कहा गया था । विवाह में वर-कन्या की आवश्यकता पड़ती हैं, उसकी विधि होती हैं और मैं जो रहा हूँ सो विवाह के विषय में ही हैं । विवाह का मुझे पूरा-पूरा स्मरण हैं ।
पाठक जान चुके हैं कि हम तीन भाई थे । उनमे सबसे बड़े का ब्याह हो चुका था । मझले भाई मुझसे दो या तीन साल बड़े थे । घर के बड़ों ने एक साथ तीन विवाह करने का निश्चय किया । मझले भाई का, मेरे काकाजी के छोटे लड़के का, जिनकी उमर मुझसे एकाध साल अधिक रही होगी, और मेरा । इसमें हमारे कल्याण की बात नहीं थी। हमारी इच्छा की तो थी ही नहीं । बात सिर्फ बड़ो की सुविधा और खर्च की थी ।
हिन्दू-संसार में विवाह कोई ऐसी-वैसी चीज नहीं . वर-कन्या के माता-पिता विवाह के पीछे बरबाद होते हैं, धन लुटाते हैं और समय लुटाते हैं । महीनों पहले से तैयारियाँ होती हैं । कपड़े बनते हैं , गहने बनते हैं , जातिभोज के खर्च के हिसाब बनते हैं , पकवानों के प्रकारों की होड़ बदी जाती हैं । औरतें, गला हो चाहे न हो तो भी गाने गा-गाकर अपनी आवाज बैठा लेती हैं, बीमार भी पड़ती हैं । पड़ोसियो की शान्ति में खलल पहुँचाती है । बेचारे पड़ोसी भी अपने यहाँ प्रसंग आने पर यही सब करते हैं, इसलिए शोरगुल, जूठन, दुसरी गन्दगियाँ, सब कुछ उदासीन भाव से सह लेते हैं ।
ऐसा झमेला तीन बार करने के बदले एक बार ही कर लिया जाए, तो कितना अच्छा हो? खर्च कम होने पर भी ब्याह ठाठ से हो सकता हैं, क्योकि तीन ब्याह एक साथ करने पर पैसा खुले हाथों खर्चा जा सकता हैं । पिताजी और काकाजी बूढ़े थे । हम उनके आखिरी लड़के ठहरे । इसलिए उनके मन में हमारे विवाह रचाने का आनन्द लूटने की वृत्ति भी रही होगी । इन और ऐसे दूसरे विचारों से ये तीनों विवाह एक साथ करने का निश्चय किया गया, और सामग्री जुटाने का काम तो, जैसा कि मैं कह चुका हूँ महीनों पहले से शुरु हो चुका था ।
हम भाईयों को तो सिर्फ तैयारियों से ही पता चला कि ब्याह होने वाले हैं । उस समय मन में अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने, बाजे बजने, वर यात्रा के समय घोड़े पर चढ़ने, बढिया भोजन मिलने, एक नई बालिका के साथ विनोद करने आदि की अभिलाषा के सिवा दुसरी कोई खास बात रही हो, इसका मुझे कोई स्मरण नहीं हैं । विषय-भोग की वृत्ति तो बाद में आयी । वह कैसे आयी, इसका वर्णन कर सकता हूँ, पर पाठक ऐसी जिज्ञासा न रखें । मैं अपनी शरम पर परदा डालना चाहता हूँ । जो कुछ बतलाने लायक हैं, वह इसके आगे आयेगा । किन्तु इस चीज का व्योरे का उस केन्द्र बिन्दु से बहुत ही थोड़ा सम्बन्ध हैं, जिससे मैने अपनी निगाह के सामने रखा हैं।
हम तो भाइयों को राजकोट से पोरबन्दर ले जाया गया । वहाँ हल्दी चढ़ाने आदि की विधि हुई, वह मनोरंजन होते हुए भी उसकी चर्चा छोड़ देने लायक हैं ।
पिताजी दीवान थे, फिर भी थे तो नौकर ही ; तिस पर राज-प्रिय थे, इसलिए अधिक पराधीन रहे । ठाकुर साहब ने आखिरी घड़ी तक उन्हें छोड़ा नहीं । अन्त में जब छोड़ा तो ब्याह के दो दिन पहले ही रवाना किया । उन्हें पहुँचाने के लिए खास डाक बैठायी गयी । पर विधाता ने कुछ और ही सोचा था । राजकोट से पोरबन्दर साठ कोस हैं । बैलगाड़ी से पाँच दिन का रास्ता था । पिताजी तीन दिन में पहुँचे । आखिरी में तांगा उलट गया । पिताजी को कड़ी चोट आयी । हाथ पर पट्टी, पीठ पर पट्टी । विवाह-विषयक उनका और हमारा आनन्द आधा चला गया । फिर भी ब्याह तो हुए ही । लिखे मुहूर्त कहीं टल सकते हैं ? मैं तो विवाह के बाल-उल्लास में पिताजी का दुःख भूल गया !
मैं पितृ-भक्त तो था ही, पर विषय-भक्त भी वैसा ही था न ? यहाँ विषय का मतलब इन्द्रिय का विषय नहीं हैं , बल्कि भोग-मात्र हैं । माता-पिता की भक्ति के लिए सब सुखों का त्याग करना चाहिये , यह ज्ञान तो आगे चलकर मिलने वाला था । तिस पर भी मानो मुझे भोगेच्छा को दण्ड ही भुगतना हो, इस तरह मेरे जीवन में एक विपरीत घटना घटी , जो मुझे आज तक अखरती हैं । जब-जब निष्कुलानन्द का
त्याग न टके रे वैराग बिना,
करीए कोटि उपाय जी ।
गाता हूँ या सुनता हूँ, तब-तब वह विपरीत और कड़वी घटना मुझे याद आती हैं और शरमाती हैं ।
पिताजी ने शरीर से पीड़ा भोगते हुए भी बाहर से प्रसन्न दीखने का प्रयत्न किया और विवाह में पूरी तरह योग दिया । पिताजी किस-किस प्रसंग में कहाँ-कहाँ बैठे थे, इसकी याद मुझे आज भी जैसी की वैसी बनी हैं । बाल-विवाह की चर्चा करते हुए पिताजी के कार्य की जो टीका मैंने आज की हैं, वह मेरे मन में उस समय थोड़े ही की थी ? तब तो सब कुछ योग्य और मनपसंद ही लगा था । ब्याहने का शौक था और पिताजी जो कर रहैं ठीक ही कर रहे हैं, ऐसा लगता था । इसलिए उस समय के स्मरण ताजे हैं ।
मण्डप में बैठे, फेरे फिरे, कंसार खाया-खिलाया, और तभी से वर-वधू साथ में रहने लगे । वह पहली रात  ! दो निर्दोष बालक अनजाने संसार-सागर में कूद पड़े । भाभी ने सिखलाया कि मुझे पहली रात में कैसा बरताब करना चाहिये । धर्मपत्नी को किसने सिखलाया, सो पूछने की बात मुझे याद नहीं । पूछने की इच्छा तक नहीं होती । पाठक यह जान ले कि हम दोनों एक-दूसरे से डरते थे, ऐसा भास मुझे हैं । एक-दूसरे से शरमाते तो थे ही । बातें कैसे करना, क्या करना, सो मैं क्या जानूँ ? प्राप्त सिखापन भी क्या मदद करती ? लेकिन क्या इस सम्बन्ध में कुछ सिखाना जरुरी होता हैं? यहाँ संस्कार बलबान हैं, वहाँ सिखावन सब गैर-जरुरी बन जाती हैं । धीरे-धीरे हम एक-दूसरे को पहचानने लगे, बोलने लगे । हम दोनों बराबरी की उमर के थे । पर मैने तो पति की सत्ता चलाना शुरू कर दिया ।

पतित्व
जिन दिनों मेरा विवाह हुआ, उन दिनो निबन्धो की छोटी-छोटी पुस्तिकायें -- पैसे-पैसे या पाई- पाई की, सो तो कुछ याद नही -- निकलती थी । उनमे दम्पती-प्रेम, कमखर्ची, बालविवाह आदि विषयो की चर्चा रहती थी । उनमें से कुछ निबन्ध मेरे हाथ मे पड़ते और मैं उन्हे पढ़ जाता । मेरी यह आदत तो थी कि पढ़े हुए में से जो पसन्द न आये उसे भूल जाना और जो पसन्द आये उस पर अमल करना । मैने पढ़ा था कि एकपत्नी-व्रत पालना पति का धर्म हैं । बात हृदय में रम गयी । सत्य का शौक तो था ही इसलिए पत्नी को धोखा तो दे ही नहीं सकता था । इसी से यह भी समझ में आया कि दुसकी स्त्री के साथ सम्बन्ध नहीं रहना चाहिए । छोटी उमर मे एकपत्नी-व्रत के भंग की सम्भावना कम ही रहती हैं ।
पर इन सद् विचारो का एक बुरा परिणाम निकला । अगर मुझे एक-पत्नी-व्रत पालना हैं, तो पत्नी को एक-पति-व्रत पालना चाहिये । इस विचार के कारण मैं ईर्ष्यासु पति बन गया । 'पालना चाहिये' में से मैं 'पलवाना चाहिये' के विचार पर पहुँचा । और अगर पलवाना हैं तो मुझे पत्नी की निगरनी रखनी चाहिये । मेरे लिए पत्नी की पवित्रता में शंका करने का कोई कारण नहीं था । पर ईर्ष्या कारण क्यों देखने लगी ? मुझे हमेशा यह जानना ही चाहिये कि मेरी स्त्री कहाँ जाती हैं । इसलिए मेरी अनुमति के बिना वह कहीं जा ही नहीं सकती । यह चीज हमारे बीच दुःखद झगड़े की जड़ बन गयी । बिना अनुमति के कहीं भी न जा सकना तो एक तरह की कैद ही हुई । पर कस्तूरबाई ऐसी कैद सहन करने वाली थी ही नहीं। जहाँ इच्छा होती वहाँ मुझसे बिना पूछे जरुर जाती । मैं ज्यों-ज्यों दबाव डालता, त्यों-त्यों वह अधिक स्वतंत्रता से काम लेती, और मैं अधिक चिढ़ता । इससे हम बालको के बीच बोलचाल का बन्द होना एक मामूली चीज बन गयी । कस्तूरबाई ने जो स्वतंत्रता बरती, उसे मैं निर्दोष मानता हूँ । जिस बालिका के मन में पाप नहीं हैं, वह देव-दर्शन के लिए जाने पर या किसी से मिलने जाने पर दबाव क्यों सहन करें ? अगर मैं उस पर दबाव डालता हूँ, तो वह मुझ पर क्यों न डाले  ? ... यह तो अब मुझे समझ में आ रहा हैं । उस समय तो मुझे अपना पतित्व सिद्ध करना था । लेकिन पाठक यह न माने कि हमारे गृहृजीवन में कहीं भी मिठास नहीं थी । मेरी वक्रता की जड़ प्रेम में थी । मैं अपनी पत्नी को आदर्श पत्नी बनाना चाहता था । मेरी यह भावना थी कि वह स्वच्छ बने, स्वच्छ रहें, मैं सीखूँ सो सीखें, मैं पढ़ू सो पढ़े और हम दोनों एक दूसरे में ओत-प्रोत रहें ।
कस्तूरबाई में यह भावना थी या नहीं, इसका मुझे पता नहीं । वह निरक्षर थी । स्वभाव से सीधी, स्वतंत्र, मेहनती और मेरे साथ तो कम बोलने वाली थी । उसे अपने अज्ञान का असंतोष न था । अपने बचपन में मैने कभी उसकी यह इच्छा नहीं जानी कि वह मेरी तरह वह भी पढ़ सके तो अच्छा हो । इसमें मैं मानता हूँ कि मेरी भावना एकपक्षी थी । मेरा विषय-सुख एक स्त्री पर ही निर्भर था और मैं उस सुख का प्रतिघोष चाहता था । जहाँ प्रेम एक पक्ष की ओर से होता हैं वहाँ सर्वांश में दुःख तो नहीं ही होता । मैं अपनी स्त्री के प्ति विषायाक्त था । शाला में भी उसके विचार आते रहते । कब रात पड़े और कब हम मिले, यह विचार बना ही रहता । वियोग असह्य था । अपनी कुछ निकम्मी बकवासों से मैं कस्तूरबाई को जगाये ही रहता । मेरा ख्याल हैं कि इस आसक्ति के साथ ही मुझमें कर्तव्य-परायणता न होती, तो मैं व्याधिग्रस्त होकर मौत के मुँह में चला जाता, अथवा इस संसार में बोझरुप बनकर जिन्दा रहता । 'सवेरा होते ही नित्यकर्म में तो लग जाना चाहिए, किसी के धोखा तो दिया ही नहीं जा सकता' ... अपने इन विचारों के कारण मैं बहुत से संकटों से बचा हूँ ।
मैं लिख चुका हूँ कि कस्तूरबाई निरक्षर थी । उसे पढ़ाने का मेरी बड़ी इच्छा थी । पर मेरी विषय-वासना मुझे पढ़ाने कैसे देती ? एक तो मुझे जबरदस्ती पढ़ाना था । वह भी रात के एकान्त में ही हो सकता था । बड़ों के सामने तो स्त्री की तरफ देखा भी नहीं जा सकता था । फिर बात-चीत कैसे होती ? उन दिनों काठियावाड़ में घूँघट निकालने का निकम्मा और जंगली रिवाज था; आज भी बड़ी हद तक मौजूद हैं । इस कारण मेरे लिए पढ़ाने की परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल थी । अतएव मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि जवानी में पढ़ाने के जितने प्रयत्न मैने किये, वे सब लगभग निष्फल हुए । जब मैं विषय की नींद से जागा, तब तो सार्वजनिक जीवन में कूद चुका था । इसलिए अधिक समय देने की मेरी स्थिति नहीं रहीं थी । शिक्षको के द्वारा पढ़ाने के मेरे प्रयत्न भी व्यर्थ सिद्ध हुए । यही कारण हैं कि आज कस्तूरबाई की स्थिति मुश्किल से पत्र लिख सकने और साधारण गुजराती समझ सकने की हैं । मैं मानता हूँ कि अगर मेरा प्रेम विषय से दूषित न होता तो आज वह विदुषी स्त्री होती । मैं उसके पढने के आलस्य को जीत सकता था, क्योंकि मैं जानता हूँ कि शुद्ध प्रेम के लिए कुछ भी असम्भव नहीं हैं ।
यों पत्नी के प्रति विषायासक्त होते हुए भी मैं किसी कदर कैसे बत सका, इसका एक कारण बता चुका हूँ । एक और भी बताने लायक हैं । सैकड़ों अनुभवों के सहारे मैं इस परिणाम पर पहुँच सका हूँ कि जिसकी निष्ठा सच्ची हैं, उसकी रक्षा स्वयं भगवान ही कर लेके हैं । हिन्दू-समाज में यदि बाल विवाह का घातक रिवाज भी हैं, तो साथ ही उससे मुक्ति दिलाने वाला रिवाज भी हैं । माता-पिता बालक वर-वधू को लम्बे समय तक एकसाथ नहीं रहने देते । बाल-पत्नी का आधे से अधिक समय पीहर में बीतता है । यहीं बात हमारे सम्बन्ध में भी हुई ; मतलब यह कि तेरह से उन्नीस साल की उमर तक छुटपुट मिलाकर कुल तीन साल से अधिक समय तक साथ नही रहे होंगे । छह- आठ महीने साथ रहते, इतने मे माँ-बाप के घर का बुलावा आ ही जाता । उस समय तो वह बुलावा बहुत बुरा लगता था, पर उसी के कारण हम दोनों बच गये । फिर तो अठारह साल की उमर में विलायत गया, जिससे लम्बे समय का सुन्दर वियोग रहा । विलायत से लौटने पर भी हम करीब छह महीने साथ में रहे होंगे , क्योकि मैं राजकोट और बम्बई के बीच जाता-आता रहता था । इतने में दक्षिण अफ्रिका का बुलावा आ गया । इस बीच तो मैं अच्छी तरह जाग्रत हो चुका था ।

हाईस्कूल में
मैं ऊपर लिख चुका हूँ कि ब्याह के समय मैं हाईस्कूल में पढ़ता था । उस समय हम तीनों भाई एक ही स्कूल में पढ़ते थे । जेठे भाई ऊपर के दर्जे में थे और जिन भाई को ब्याह के साथ मेरा ब्याह हुआ था, वे मुझसे एक दर्जा आगे थे । ब्याह का परिणाम यह हुआ कि हम दो भाईयों का एक वर्ष बेकार गया । मेरे भाई के लिए तो परिणाम इससे भी बुरा रहा । ब्याह के बाद वे स्कूल पढ़ ही न सके । कितने नौजवानों को ऐसे अनिष्ट परिणाम का सामना करना पड़ता होगा, भगवान ही जाने ! विद्याभ्यास और विवाह दोनों एक साथ तो हिन्दू समाज में ही चल सकते हैं ।
मेरी पढ़ाई चलती रही । हाईस्कूल में मेरी गिनती मन्दबुद्धि विद्यार्थियों में नहीं थी। शिक्षकों का प्रेम मैं हमेशा ही पा सका था । हर साल माता- पिता के नाम स्कूल में विद्यार्थी की पढ़ाई और उसके आचरण के संबंध में प्रमाणपत्र भेजे जाते थे । उनमें मेरे आचरण या अभ्यास के खराब होने की टीका कभी नहीं हुई । दूसरी कक्षा के बाद मुझे इनाम भी मिसे और पाँचवीं तथा छठी कक्षा में क्रमशः प्रतिमास चार और दस रुपयों की छात्रवृत्ति भी मिली थी । इसमें मेरी होशियारी की अपेक्षा भाग्य का अंश अधिक था । ये छात्रवृत्तियाँ सब विद्यार्थियों के लिए नहीं थी, बल्कि सोरठवासियों में से सर्वप्रथम आनेवालों के लिए थी । चालिस-पचास विद्यार्थियों की कक्षा में उस समय सोरठ प्रदेश के विद्यार्थी कितने हो सकते थे ।
मेरा अपना ख्याल हैं कि मुझे अपनी होशियारी का कोई गर्व नहीं था । पुरस्कार या छात्रवृत्ति मिलने पर मुझे आश्चर्य होता था । पर अपने आचरण के विषय में मैं बहुत सजग था । आचरण में दोष आने पर मुझे रुलाई आ ही जाती थी । मेरे हाथों कोई भी ऐसा काम बने, जिससे शिक्षक को मुझे डाँटना पड़े अथवा शिक्षकों का ख्याल बने तो वह मेरे लिए असह्य हो जाता था । मुझे याद है कि एक बार मुझे मार खानी पड़ी थी । मार का दुःख नहीं था, पर मैं दण्ड का पात्र माना गया, इसका मुझे बड़ा दुःख रहा । मैं खूब रोया । यह प्रसंग पहली या दूसरी कक्षा का हैं । दुसरा एक प्रसंग सातवीं कक्षा का हैं । उस समय दोराबजी एदलजी गीमी हेड-मास्टर थे । वे विद्यार्थी प्रेमी थे, क्योंकि वे नियमों का पालन करवाते थे, व्यवस्थित रीति से काम लेते और अच्छी तरह पढ़ाते थे । उन्होंने उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए कसरत-क्रिकेट अनिवार्य कर दिये थे । मुझे इनसे अरुचि थी । इनके अनिवार्य बनने से पहले मैं कभी कसरत, क्रिकेट या फुटबाल मे गया ही न था । न जाने का मेरा शरमीला स्वभाव ही एक मात्र कारण था । अब मैं देखता हूँ कि वह मेरी अरुचि मेरी भूल थी । उस समय मेरा यह गलत ख्याल बना रहा कि शिक्षा के साथ कसरत का कोई सम्बन्ध नहीं हैं । बाद में मैं समझा कि विद्याभ्यास में व्यायाम का, अर्थात् शारीरिक शिक्षा का, मानसिक शिक्षा के समान ही स्थान होना चाहिये ।
फिर भी मुझे कहना चाहिये कि कसरत में न जाने से मुझे नुकसान नहीं हुआ । उसका कारण यह रहा कि मैने पुस्तकों में खुली हवा में घुमने जाने की सलाह पढ़ी थी और वह मुझे रुची थी । इसके कारण हाईस्कूल की उच्च कक्षा से ही मुझे हवाखोरी की आदत पड़ गयी थी । वह अन्त तक बनी रही । टहलना भी व्यायाम तो ही हैं ही, इससे मेरा शरीर अपेक्षाकृत सुगठित बना ।
अरुचि का दूसरा कारण था, पिताजी की सेवा करने की तीव्र इच्छा । स्कूल की छुट्टी होते ही मैं सीधा घर पहुँचता और सेवा मे लग जाता । जब कसरत अनिवार्य हुई , तो इस सेवा में बाधा पड़ी । मैंने विनती की कि पिताजी की सेवा के लिए कसरत से छुट्टी दी जाय । गीमी साहब छुट्टी क्यो देने लगे ? एक शनिवार के दिन सुबह का स्कूल था । शाम को चार बजे कसरत के लिए जाना था । मेरे पास घड़ी नहीं थी । बादलों से धोखा खा गया । जब पहुँचा तो सब जा चुके थे । दूसरे दिन गीमी साहब ने हाजिरी देखी, तो मैं गैर-हाजिर पाया गया । मुझसे कारण पूछा गया । मैंने सही-सही कारण बता दिया उन्होंने उसे सच नहीं माना और मुझ पर एक या दो आने ( ठीक रकम का स्मरण नहीं हैं ) का जुर्माना किया । मुझे बहुत दुःख हुआ । कैसे सिद्ध करुँ कि मैं झूठा नहीं हूँ । मन मसोसकर रह गया । रोया । समझा कि सच बोलने वालो को गाफिल भी नहीं रहना चाहिये । अपनी पढ़ाई के समय में इस तरह की मेरी यह पहली और आखिरी गफलत थी । मुझे धुंधली सी याद हैं कि मैं आखिर यह जुर्माना माफ करा सका था ।
मैंने कसरत से तो मुक्ति कर ही ली । पिताजी ने हेडमास्टर को पत्र लिखा कि स्कूल के बाद वे मेरी उपस्थिति का उपयोग अपनी सेवा के लिए करना चाहते हैं । इस कारण मुझे मुक्ति मिल गयी ।
व्यायाम के बदले मैंने टहलने का सिलसिला रखा, इसलिए शरीर को व्यायाम न देने की गलती के लिए तो शायद मुझे सजा नहीं भोगनी पड़ी, पर दुसरी गलती की सजा मैं आज तक भोग रहा हूँ । मैं नही जानता कि पढाई मे सुन्दर लेखन आवश्यक नहीं हैं, यह गलत ख्याल मुझे कैसे हो गया था । पर ठेठ विलायत जाने तक यह बना रहा । बाद में, और खास करके, जब मैंने वकीलों के तथा दक्षिण अफ्रीका में जन्मे और पढ़े-लिखे नवयुवकों के मोती के दानों- जैसे अक्षर देखे तो मैं शरमाया और पछताया । मैंने अनुभव किया कि खराब अक्षर अधूरी शिक्षा की निशानी मानी जानी चाहिये । बाद मे मैंने अक्षर सुधारने का प्रयत्न किया, पर पके घड़े पर कही गला जुड़ता हैं ? जवानी में मैने जिसकी उपेक्षा की, उसे आज तक नहीं कर सका । हरएक नवयुवक और नवयुवती मेरे उदाहरण से सबक ले और समझे कि अच्छे विद्या का आवश्यक अंग हैं । अच्छे अक्षर सीखने के लिए चित्रकला आवश्यक हैं । मेरी तो यह राय बनी हैं कि बालको को चित्रकला पहले सिखानी चाहिये । जिस तरह पक्षियों, वस्तुओं आदि को देखकर बालक उन्हें याद रखता है और आसानी से उन्हें पहचानता हैं, उसी तरह अक्षर पहचानना सीखे और जब चित्रकला सीखकर चित्र आदि बनाने लगे तभी अक्षर लिखना सीखें, तो उसके अक्षर छपे के अक्षरों के समान सुन्दर होंगे ।
इस समय के विद्याभ्यास के दूसरे दो संस्मरण उल्लेखनीय है । ब्याह के कारण जो एक साल नष्ट हुआ, उसे बचा लेने की बात दूसरी कक्षा के शिक्षक ने मेरे सामने रखी थी। उन दिनों परिश्रमी विद्यार्थो को इसके लिए अनुमति मिलती थी । इस कारण तीसरी कक्षा मे छह महीने रहा और गरमी की छुट्टियो से पहले होनेवाली परीक्षा के बाद मुझे चौथी कक्षा मे बैठाया गया । इस कक्षा से थोड़ी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से होनी थी । मेरी समझ में कुछ न आता था । भूमिति भी चौथी कक्षा से शुरु होती थी । मै उसमें पिछड़ा हुआ था ही, तिस पर मैं उसे बिल्कुल समझ नहीं पाता था । भूमिति के शिक्षक अच्छी तरह समझाकर पढ़ाते थे, पर मैं कुछ समझ ही न पाता था । मै अकसर निराश हो जाता था । कभी-कभी यह भी सोचता कि एक साल में दो कक्षाये करने का विचार छोड़कर मैं तीसरी कक्षा मे लौट जाऊँ । पर ऐसा करने में मेरी लाज जाती, और जिन शिक्षक ने मेरी लगन पर भरोसा करके मुझे चढाने की सिफारिश की थी उनकी भी लाज जाती । इस भय से नीचे जाने का विचार तो छोड़ ही दिया । जब प्रयत्न करते करते मैं युक्लिड के तेरहवें प्रमेय तक पहुँचा, तो अचानक मुझे बोध हुआ कि भूमिति तो सरल से सरल विषय हैं । जिसमें केवल बुद्धि का सीधा और सरल प्रयोग ही करना हैं, उसमें कठिनाई क्या हैं ? उसके बाद तो भूमिति मेरे लिए सदा ही सरल और सरस विषय बना रहा ।
भूमिति की अपेक्षा संस्कृत ने मुझे अधिक परेशान किया । भूमिति मे रटने की कोई बात थी ही नही, जब कि मेरी दृष्टि से संस्कृत में तो सब रटना ही होता था । यह विषय भी चौथी कक्षा में शुरु हुआ था । छठी कक्षा में मैं हारा । संस्कृत के शिक्षक बहुत कड़े मिजाज के थे । विद्यार्थियों को अधिक सिखाने का लोभ रखते थे । संस्कृत वर्ग और फारसी वर्ग के बीच एक प्रकार की होड़ रहती थी । फारसी सिखाने वाले मौलवी नरम मिजाज के थे । विद्यार्थी आपस में बात करते कि फारसी तो बहुत आसान हैं और फारसी सिक्षक बहुत भले हैं । विद्यार्थी जितना काम करते हैं , उतने से वे संतोष कर लेते हैं । मैं भी आसान होने की बात सुनकर ललचाया और एक दिन फारसी वर्ग में जाकर बैठा । संस्कृत शिक्षक को दुःख हुआ । उन्होंने मुझे बुलाया और कहा: "यह तो समझ कि तू किनका लड़का हैं । क्या तू अपने धर्म की भाषा नहीं सीखेगा ? तुझे जो कठिनाई हो सो मुझे बता मैं तो सब विद्यार्थियों को बढ़िया संस्कृत सिखाना चाहता हूँ । आगे चल कर उसमे रस के घूंट पीने को मिलेंगे। तुझे यो तो हारना नहीं चाहिये । तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ ।" मैं शरमाया । शिक्षक के प्रेम की अवमानना न कर सका । आज मेरी आत्मा कृष्णशंकर मास्टर का उपकार मानती हैं । क्योंकि जितनी संस्कृत मैं उस समय सीखा उतनी भी न सीखा होता, तो आज संस्कृत शास्त्रों मैं जितना रस ले सकता हूँ उतना न ले पाता । मुझे तो इस बात का पश्चाताप होता हैं कि मैं अधिक संस्कृत न सीख सका । क्योंकि बाद में मैं समझा कि किसी भी हिन्दू बालक को संस्कृत का अच्छा अभ्यास किये बिना रहना ही न चाहिये ।
अब तो मैं यह मानता हूँ कि भारतवर्ष की उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में मातृभाषा के अतिरिक्त हिन्दी, संस्कृत , फारसी, अरबी और अंग्रेजी का स्थान होना चाहिये । भाषा की इस संख्या से किसी को डरना नहीं चाहिये । भाषा पद्धतिपूर्वक सिखाई जाये और सब विषयों को अंग्रेजी के माध्यम से सीखने-सोचने का बोझ हम पर न हो, तो ऊपर की भाषाये सीखना न सिर्फ बोझरुप न होगा, बल्कि उसमें बहुत ही आनन्द आयेगा । और जो व्यक्ति एक भाषा को शास्त्रीय पद्धति से सीख लेता हैं, उसके लिए दूसरी का ज्ञान सुलभ हो जाता हैं । असल में तो हिन्दी, गुजराती, संस्कृत एक भाषा मानी जा सकती हैं । इसी तरह फारसी और अरबी एक मानी जायें । यद्यपि फारसी और संस्कृत से मिलती-जुलती हैं और अरबी हिंब्रू से मेल हैं, फिर भी दोनों का विकास इस्लाम के प्रकट होने के बाद हुआ हैं, इसलिए दोंनो के बीच निकट का संबन्ध हैं । उर्दू को मैने अलग भाषा नहीं माना हैं, क्योंकि उसके व्याकरण का समावेश हिन्दी में हो जाता हैं । उसके शब्द फारसी और अरबी ही हैं । उँचे दर्जे की उर्दू जानने वाले के लिए अरबी और फारसी का ज्ञान जरुरी हैं, जैसे उच्च प्रकार की गुजराती, हिन्दी, बंगला, मराठी जानने वाले के लिए संस्कृत जानना आवश्यक हैं ।

दुःखद प्रसंग - 1
मैं कह चुका हूँ कि हाईस्कूल में मेरे थोड़े ही विश्वासपात्र मित्र थे । कहा जा सकता हैं कि ऐसी मित्रता रखने वाले दो मित्र अलग-अलग समय में रहे। एक का संबन्ध लम्बे समय तक नहीं टीका, यद्यपि मैंने मित्र को छोड़ा नही था । मैंने दूसरी सोहब्बत की, इसलिए पहले ने मुझे छोड़ दिया । दूसरी सोहब्बत मेरे जीवन का एक दुःखद प्रकरण हैं । यह सोहब्बत बहुत वर्षो तक रही । इस सोहब्बत को निभाने में मेरी दृष्टि सुधारक की थी । इन भाई की पहली मित्रता मेरे मझले भाई के साथ थी । वे मेरे भाई की कक्षा में थे । मैं देख सका था कि उनमें कई दोष हैं । पर मैंने उन्हें वफादार मान लिया था । मेरी माताजी, मेरे जेठे भाई और मेरी धर्मपत्नी तीनों को यह सोहब्बत कड़वी लगती थी । पत्नी का चेतावनी को तो मैं अभिमानी पति क्यों मानने लगा ? माता की आज्ञा का उल्लंघन मैं करता ही न था । बड़े भाई की बात मैं हमेशा सुनता था । पर उन्हें मैंने यह कह कर शान्त किया : "उसके जो दोष आप बाताते हैं, उन्हें मैं जानता हूँ । उसके गुण तो आप जानते ही नहीं । वह मुझे गलत रास्ते नहीं ले जायेगा, क्योंकि उसके साथ मेरी सम्बन्ध उसे सुधारने के लिए ही हैं । मुझे यह विश्वास हैं कि अगर वह सुधर जाये, तो बहुत अच्छा आदमी निकलेगा । मैं चाहता हूँ कि आप मेरे विषय में निर्भय रहें । " मैं नहीं मानता कि मेरी इस बात से उन्हें संतोष हुआ, पर उन्होंने मुझ प विश्वास किया और मुझे मेरे रास्ते जाने दिया ।
बाद में मैं देख सका कि मेरी अनुमान ठीक नहीं था । सुधार करने के लिए भी मनुष्य को गहरे पानी में नहीं पैठना चाहिये । जिसे सुधारना हैं उसके साथ मित्रता नहीं हो सकती । मित्रता में अद्वैत-भाव होता हैं । संसार में ऐसी मित्रता क्वचित् ही पायी जाती है । मित्रता समान गुणवालों के बीच शोभती और निभती हैं । मित्र एक-दूसरे को प्रभावित किये बिना रह ही नहीं सकते । अतएव मित्रता में सुधार के लिए बहुत अवकाश रहता हैं । मेरी राय हैं कि घनिष्ठ मित्रता अनिष्ट हैं, क्योंकि मनुष्य दोषों को जल्दी ग्रहण करता हैं । गुण ग्रहण करने के लिए प्रयास की आवश्यकता हैं । जो आत्मा की, ईश्वर की मित्रता चाहता हैं, उसे एकाकी रहना चाहिये, अथवा समूचे संसार के साथ मित्रता रखनी चाहिये । ऊपर का विचार योग्य हो तो अथवा अयोग्य, घनिष्ठ मित्रता बढ़ाने का मेरा प्रयोग निष्फल रहा ।
जिन दिनों मैं इन मित्र के संपर्क में आया, उन दिनों राजकोट में सुधारपंथ का जोर था । मुझे इन मित्र ने बताया कि कई हिन्दू शिक्षक छिपे-छिपे माँसाहार और मद्यपान करते हैं । उन्होंने रोजकोट के दूसरे प्रसिद्ध गृहस्थों के नाम भी दिये । मेरे सामने हाईस्कूल में कुछ विद्यार्थियों के नाम भी आये । मुझे तो आश्चर्य हुआ और दुःख भी । कारण पूछने पर यह दलील दी गयी: 'हम माँसाहार नहीं करते इसलिए प्रजा के रुप में हम निर्वीर्य हैं। अंग्रेज हम पर इसलिए राज्य करते हैं कि वे माँसाहारी हैं । मैं कितना मजबूत हूँ और कितना दौड़ सकता हूँ, सो तो तुम जानते ही हो । इसका कारण माँसाहार ही हैं । माँसाहारी को फोड़े नही होते , होने पर झट अच्छे हो जाते हैं । हमारे शिक्षक माँस खाते हैं । इतने प्रसिद्ध व्यक्ति खाते हैं ? सो क्या बिना समझे खाते हैं? तुम्हें भी खाना चाहिये । खाकर देखो कि तुममे कितनी ताकत आ जाती हैं।'
ये सब दलीलें किसी एक दिन नहीं दी गयी थी । अनेक उदाहरणों से सजाकर इस तरह की दलीलें कई बार दी गयीं । मेरे मझले भाई तो भ्रष्ट हो चुके थे । उन्होंने इन दलीलों की पुष्टि की । अपने भाई की तुलना में मैं तो बहुत दुबला था । उनके शरीर अधिक गठीले थे । उनका शaरीरिक बल मुझसे कहीं ज्यादा था । वे हिम्मतवर थे । इन मित्र के पराक्रम मुझे मुग्ध कर देते थे । वे मनचाहा दौड़ सकते थे । उनकी गति बहुत अच्छी थी । वे खूब लम्बा और ऊँचा कूद सकते थे । मार सहन करने की शक्ति भी उनमें खूब थी । अपनी इस शक्ति का प्रदर्शन भी वे मेरे सामने समय-समय पर करते थे । जो शक्ति अपने में नहीं होती, उसे दूसरों में देखकर मनुष्य को आश्चर्य होता ही हैं । मुझ में दौड़ने-कूदने की शक्ति नहीं के बराबर थी । मैं सोचा करता कि मैं भी बलबान बन जाउँ, तो कितना अच्छा हो !
इसके अलावा मैं डरपोक था। चोर, भूत, साँप आदि के डर से घिरा रहता था । ये डर मुझे हैरान भी करते थे । रात कहीं अकेले जाने की हिम्मत नहीं थीं । अंधरे मे तो कहीं जाता ही न था । दीये के बिना सोना लगभग असंभव था । कहीं इधर से भूत न आ जाये, उधर से चोर न आ जाये और तीसरी जगह से साँप न निकल आये ! इसलिए बत्ती की जरुरत तो रहती ही थी । पास में सोयी हुई और अब कुछ सयानी बनी हूई पत्नी से भी अपने इस डर की बात मैं कैसे करता ? मैं यह समझ चुका था कि वह मुझ से ज्यादा हिम्मतवाली हैं और इसलिए मैं शरमाता था । साँप आदि से डरना तो वह जानती ही न थी । अंधेरे में वह अकेली चली जाती थी । मेरे ये मित्र मेरी इन कमजोरियों को जानते थे । मुझसे कहा करते थे कि वे तो जिन्दा साँपो को भी हाथ से पकड़ लेते थे । चोर से कभी नहीं डरते । भूत को तो मानते ही नहीं । उन्होंने मुझे जँचाया कि यह प्रताप माँसाहार का हैं । इन्हीं दिनों नर्मद (गुजराती की नवीनधारा प्रसिद्ध कवि नर्मद, 1833-86) का नीचे लिखा पद गया जाता था :
अंग्रेजो राज्य करे, देशी रहे दबाई देशी रहे दबाईस जोने बेनां शरीर भाई । पेलो पाँच हाथ पूरो, पूरो पाँच से नें ।।
(अंग्रेज राज्य करते हैं और हिन्दुस्तानी दबे रहते हैं । दोनों के शरीर तो देखो। वे पूरे पाँच हाथ के हैं । एक एक पाँच सौ के लिए काफी हैं।)
इन सब बातो का मेरे मन पर पूरा-पूरा असर हुआ । मैं पिघला । मैं यह मानने लगा कि माँसाहार अच्छी चीज हैं । उससे मैं बलबान और साहसी बनूँगा । समूचा देश माँसाहार करे, तो अंग्रेजो को हराया जा सकता हैं । माँसाहार शुरू करने का दिन निश्चित हुआ। इस निश्चय -- इस आरम्भ का अर्थ सब पाठक समझ नहीं सकेंगे । गाँधी परिवार वैष्णव सम्प्रदाय का हैं । माता-पिता बहुत कट्टर वैष्णव माने जाते थे । हवेली ( वैष्णव-मन्दिर) में हमेशा जाते थे । कुछ मन्दिर तो परिवार के ही माने जाते थे । फिर गुजरात में जैन सम्प्रदाय का बड़ा जोर हैं । उसका प्रभाव हर जगह, हर काम में पाया जाता हैं । इसलिए माँसाहार का जैसा विरोध और तिरस्कार गुजरात मे और श्रावको तथा वैष्णवों में पाया जाता हैं, वैसा हिन्दुस्तान या दुनिया में और कहीं नहीं पाया जाता । ये मेरे संस्कार थे ।
मैं माता-पिता का परम भक्त था । मैं मानता था कि वे मेरे माँसाहार की बात जानेंगे तो बिना मौत के उनकी तत्काल मृत्यु हो जायेगी । जाने-अनजाने मैं सत्य का सेवक तो था ही । मैं ऐसा नहीं कह सकता कि उस समय मुझे यह ज्ञान न था कि माँसाहार करने में माता-पिता को देना होगा ।
ऐसी हालत में माँसाहार करने का मेरी निश्चय करने का मेरे लिए बहुत गम्भीर और भयंकर बात थी ।
लेकिन मुझे तो सुधार करना था । माँसाहार का शौक नहीं था । यह सोचकर कि उसमें स्वाद हैं, मैं माँसाहार शुरू नहीं कर रहा था । मुझे तो बलबान और साहसी बनना था, दूसरों को वैसा बनने के लिए न्योतना था फिर अंग्रेजो को हराकर हिन्दुस्तान को स्वतंत्र करना था । स्वराज शब्द उस समय मैने सुना नहीं था । सुधार के इस जोश में मैं होश भूल गया ।

दुःखद प्रसंग - 2
निश्चित दिन आया । अपनी स्थिति का सम्पूर्ण वर्णन करना मेरे लिए कठिन हैं । एक तरफ सुधार का उत्साह था, जीवन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने का कुतूहल था, और दूसरी ओर चोर की तरह छिपकर काम करने की शरम थी । मुझे याद नहीं पड़ता कि इसमें मुख्य वस्तु क्या थी । हम नदीं की तरफ एकान्त की खोज में चलें । दूर जाकर ऐसा कोना खोजा, जहाँ कोई देख न सके और कभी न देखी हुई वस्तु -- माँस -- देखी ! साथ में भटियार खाने की डबल रोटी थी । दोनों में से एक भी चीज मुझे भाती नहीं थी । माँस चमड़े-जैसा लगता था । खाना असम्भव हो गया । मुझे कै होने लगी । खाना छोड़ देना पड़ा । मेरी वह रात बहुत बुरी बीती । नींद नहीं आई । सपने में ऐसा भास होता था , मानो शरीर के अन्दर बकरा जिन्दा हो और रो रहा हैं । मैं चौंक उठता, पछताता और फिर सोचता कि मुझे तो माँसाहार करना ही हैं, हिम्मत नहीं हारनी हैं ! मित्र भी हार खाने वाले नहीं थे । उन्होंने अब माँस को अलग-अलग ढंग से पकाने, सजाने और ढंकने का प्रबन्ध किया ।
नदी किनारे ले जाने के बदले किसी बावरची के साथ बातचीत करके छिपे-छिपे एक सरकारी डाक-बंगले पर ले जाने की व्यवस्था की और वहाँ कुर्सी, मेज बगैरा सामान के प्रलोभन में मुझे डाला । इसका असर हुआ । डबल रोटी की नफरत कुछ कम पड़ी, बकरे की दया छूटी और माँस का तो कह नहीं सकता , पर माँसवाले पदार्थों में स्वाद आने लगा । इस तरह एक साल बीता होगा और इस बीच पाँच-छह बार माँस खाने को मिला होगा , क्योंकि डाक-बंगला सदा सुलभ न रहता था और माँस के स्वादिष्ट माने जाने वाले बढ़िया पदार्थ भी सदा तैयार नहीं हो सकते थे । फिर ऐसे भोजनो पर पैसा भी खर्च होता था । मेरे पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी, इसलिए मैं कुछ दे नहीं सकता था । इस खर्च की व्यवस्था उन मित्रो को ही करनी होती थी, कैसे व्यवस्था की, इसका मुझे आज तक पता नहीं हैं । उनका इरादा को मुझे माँस की आदत लगा देने का -- भ्रष्ट करने का -- था, इसळिए वे अपना पैसा खर्च करते थे । पर उनके पास भी कोई अखूट खजाना नहीं था, इसलिए ऐसी दावते कभी-कभी ही हो सकती थी ।
जब-जब ऐसा भोजन मिलता, तब-तब घर पर तो भोजन हो ही नहीं सकता था । जब माताजी भोजन के लिए बुलाती, तब 'आज भूख नहीं हैं, खाना हजम नहीं हुआ हैं ' ऐसे बहाने बनाने पड़ते थे । ऐसा कहते समय हर बार मुझे भारी आघात पहुँचता था । यह झूठ, सो भी माँ के सामने ! और अगर माता-पिता को पता चले कि लड़के माँसाहारी हो गये हैं तब तो उन पर बिजली ही टूट पड़ेगी । ये विचार मेरे दिल को कुरेदते रहते थे, इसलिए मैंने निश्चय किया: 'माँस खाना आवश्यक हैं, उसका प्रचार करके हम हिन्दुस्तान को सुधारेंगे ; पर माता-पिता को धोखा देना और झूठ बोलना तो माँस न खाने से भी बुरा हैं । इसलिए माता-पिता के जीते जी माँस नहीं खाना चाहिये । उनकी मृत्यु के बाद, स्वतंत्र होने पर खुले तौर से माँस खाना चाहिये और जब तक वह समय न आवे , तब तक माँसाहार का त्याग करना चाहिये । ' अपना यह निश्चय मैने मित्र को जता दिया, और तब से माँसाहार जो छूटा, सो सदा के छूटा । माता-पिता कभी यह जान ही न पाये की उनके दो पुत्र माँसाहार कर चुके हैं ।
माता-पिता को धोखा न देने के शुभ विचार से मैने माँसाहार छोड़ा, पर वह मित्रता नहीँ छोड़ी । मैं मित्र को सुधारने चला था , पर खुद ही गिरा, और गिरावट का मुझे होश तक न रहा ।
इसी सोहब्बत के कारण मैं व्यभिचार में भी फँस जाता । एक बार मेरे ये मित्र मुझे वेश्याओं की बस्ती में ले गये । वहाँ मुझे योग्य सूचनायें देकर एक स्त्री के मकान में भेजा । मुझे उसे पैसे वगैरा कुछ देना नहीं था । हिसाब हो चुका था । मुझे तो सिर्फ दिल-बहलाव की बातें करनी थी । मैं घर में घुस तो गया, पर जिसे ईश्वर बचाना हैं, वह गिरने की इच्छा रखते हुए भी पवित्र रह सकता हैं । उस कोठरी में मैं तो अँधा बन गया । मुझे बोलने का भी होश न रहा । मारे शरम के सन्नाटे में आकर उस औरत के पास खटिया पर बैठा, पर मुँह से बोल न निकल सका । औरत ने गुस्से में आकर मुझे दो-चार खरी-खोटी सुनायी और दरवाजे की राह दिखायी ।
उस समय तो मुझे जान पड़ा कि मेरी मर्दानगी को बट्टा लगा और मैने चाहा कि घरती जगह दे तो मैं उसमे समा जाऊँ । पर इस तरह बचने के लिए मैंने सदा ही भगवान का आभार माना हैं । मेरे जीवन में ऐसे ही दुसरे चार प्रसंग और आये हैं । कहना होगा कि उनमें से अनेकों में, अपने प्रयत्न के बिना, केवल परिस्थिति के कारण मैं बचा हूँ । विशुद्ध दृष्टि से तो इल प्रसंगों में मेरा पतन ही माना जायेगा । चूँकि विषय की इच्छा की, इसलिए मैं उसे भोग ही चुका । फिर भी लौकिक दृष्टि से, इच्छा करने पर भी जो प्रत्यक्ष कर्म से बचता हैं, उसे हम बचा हुआ मानते हैं ; और इन प्रसंगो में मैं इसी तरह, इतनी ही हद तक, बचा हुआ माना जाऊँगा । फिर कुछ काम ऐसे हैं, जिन्हे करने से बचना व्यक्ति के लिए और उसके संपर्क में आने वालों के लिए बहुत लाभदायक होता हैं, और जब विचार शुद्धि हो जाती हैं तब उस कार्य में से बच जाने कि लिए वब ईश्वर का अनुगृहित होता हैं । जिस तरह हम यह अनुभव करते है कि पतल से बचने का प्रयत्न करते हूए भी मनुष्य पतित बनता हैं, उसी तरह यह भी एक अमुभव-सिद्ध बात हैं कि गिरना चाहते हुए भी अनेक संयोगों के कारण मनुष्य गिरने से बच जाता हैं । इसमें पुरुषार्थ कहाँ हैं, दैव कहाँ हैं, अय़वा किन नियमों के वश होकर मनुष्य आखिर गिरता या बचता हैं, यो सारे गूढ़ प्रश्न हैं । इसका हल आज तक हुआ नहीं और कहना कठिन हैं कि अंतिम निर्णय कभी हो सकेगा या नहीं ।
पर हम आगे बढ़े । मुझे अभी तक इस बात का होश नहीं हुआ कि इन मित्र की मित्रता अनिष्ट हैं । वैसा होने से पहले मुझे अभी कुछ और कड़वे अनुभव प्राफ्त करने थे । इसका बोध तो मुझे तभी हुआ जब मैंने उनके अकल्पित दोषों का प्रत्यक्ष दर्शन किया । लेकिन मैं यथा संभव समय के क्रम के अनुसार अपने अनुभव लिख रहा हूँ, इसलिए दुसरे अनुभव आगें आवेंगे।
इस समय की एक बात यहीं कहनी होगी । हम दम्पती के बीच जो जो कुछ मतभेद या कलह होता, उसका कारण यह मित्रता भी थी । मैं ऊपर बता चुका हूँ कि मैं जैसा प्रेमी था वैसा ही वहमी पति था । मेरे वहम को बढाने वाली यह मित्रता थी, क्योकि मित्र की सच्चाई के बारे में मुझे कोई सन्देह था ही नहीं । इन मित्र की बातों मे आकर मैंने अपनी धर्मपत्नी को कितने ही कष्ट पहुँचाये । इस हिंसा के लिए मैने अपने को कभी माफ नहीं किया हैं । ऐसे दुःख हिन्दू स्त्री ही सहन करती हैं , और इस कारण मैने स्त्री को सदा सहनशीलता की मूर्ति के रूप में देखा हैं । नौकर पर झूठा शक किया जाय तो वह नौकरी छोड़ देता हैं , पुत्र पर ऐसा शक हो तो वह पिता का घर छोड़ देता हैं , मित्रों के बीच शक पैदा हो तो मित्रता टूट जाती हैं, स्त्री को पति पर शक हो तो वह मन मसोस कर बैठी रहती हैं , पर अगर पति पत्नी पर शक करे तो पत्नी बेचारी का भाग्य ही फूट जाता हैं । वह कहाँ जाये ? उच्च माने जाने वाले वर्ण की हिन्दू स्त्री अदालत में जाकर बँधी हुई गाँठ को कटवा भी नहीं सकती, ऐसा एक तरफा न्याय उसके लिए रखा गया हैं । इस तरह का न्याय मैने दिया, इसके दुःख को मै कभी नहीं भूल सकता । इस संदेह की जड़ तो तभी कटी जब मुझे अहिंसा का सूक्ष्म ज्ञान हुआ , यानि जब मैं ब्रह्मचर्य की महिमा को समझा और यह समझा कि पत्नी पति की दासी नहीं, पर उलकी सहचारिणी हैं, सहधर्मिणी हैं , दोनो एक दूसरे के सुख-दुःख के समान साझेदार हैं , और भला-बुरा करने की जितनी स्वतंत्रता पति को हैं उतनी ही पत्नी को हैं । संदेह के उस काल को जब मैं याद करती हूण तो मुझे अपनी मूर्खता और विषयान्ध निर्दयता पर क्रोध आता है और मित्रता- विषयक अपनी मूर्च्छा पर दया आती हैं ।

चोरी और प्रायश्चित
माँसाहार के समय के और उससे पहले के कुछ दोषों का वर्णन अभी रह गया हैं । ये दोष विवाह से पहले का अथवा उसके तुरन्त बाद के हैं ।
अपने एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीडी पीने को शौक लगा । हमारे पास पैसे नहीं थे । हम दोनो में से किसी का यह ख्याल तो नहीं था कि बीड़ी पीने में कोई फायदा हैं, अथवा गन्ध मे आनन्द हैं । पर हमे लगा सिर्फ धुआँ उड़ाने में ही कुछ मजा हैं । मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी । उन्हें और दूसरो को धुआँ उड़ाते देखकर हमे भी बीड़ी फूकने की इच्छा हुई । गाँठ में पैसे तो थे नहीं, इसलिए काकाजी पीने के बाद बीड़ी के जो ठूँठ फैंक देके , हमने उन्हें चुराना शुरू किया ।
पर बीड़ी के ये ठूँठ हर समय निल नहीं सकते थे , औऱ उनमें से बहुत धुआँ भी नहीं निकलता था । इसलिए नौकर की जेब में पड़े दो-चार पैसों में से हम ने एकाध पैसा चुराने की आदत डाली और हम बीड़ी खरीदने लगे । पर सवाल यह पैदा हुआ कि उसे संभाल कर रखें कहाँ । हम जानते थे कि बड़ो के देखते तो बीडी पी ही नहीं सकते । जैसे-तैसे दो-चार पैसे चुराकर कुछ हफ्ते काम चलाया । इसी बीच सुना एक प्रकार का पौधा होता हैं जिसके डंठल बीड़ी की तरप जलते हैं और फूँके जा सकते है । हमने उन्हें प्राप्त किया और फूँकने लगे !
पर हमें संतोष नहीं हुआ । अपनी पराधीनता हमें अखरने लगी । हमें दुःख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे । हम उब गये और हमने आत्महत्या करने का निश्चय कर किया !
पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन दें? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु होती हैं । हम जंगल में जाकर बीच ले आये । शाम का समय तय किया । केदारनाथजी के मन्दिर की दीपमाला में घी चढ़ाया , दर्शन कियें और एकान्त खोज लिया । पर जहर खाने की हिम्मत न हूई । अगर तुरन्त ही मृत्यु न हुई तो क्या होगा ? मरने से लाभ क्या ? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाये ? फिक भी दो-चार बीज खाये । अधिक खाने की हिम्मत ही न पड़ी । दोनों मौत से डरे और यह निश्चय किया कि रामजी के मन्दिर जाकर दर्शन करके शान्त हो जाये और आत्महत्या की बात भूल जाये ।
मेरी समझ में आया कि आत्महत्या का विचार करना सरल हैं , आत्महत्या करना सरल नहीं । इसलिए कोई आत्महत्या करने का धमकी देता हैं, तो मुझ पर उसका बहुत कम असर होता हैं अथवा यह कहना ठीक होगा कि कोई असर हो ही नहीं ।
आत्महत्या के इस विचार का परिणाम यह हुआ कि हम दोनो जूठी बीड़ी चुराकर पीने की और नौकर के पैसे चुराकर पैसे बीड़ी खरीदने और फूँकने की आदत भूल गये । फिर कभी बड़ेपन में पीने की कभी इच्छा नहीं हुई । मैने हमेशा यह माना हैं कि यह आदत जंगली , गन्दी और हानिकारक हैं । दुनिया में बीड़ी का इतना जबरदस्त शौक क्यों हैं, इसे मैं कभी समझ नहीं सका हूँ । रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में बहुत बीड़ी पी जाती हैं, वहाँ बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता हैं औऱ धुँए से मेरा दम घुटने लगता हैं ।
बीड़ी के ठूँठ चुराने और इसी सिलसिले में नोकर के पैसे चुराने की के दोष की तुलना में मुझसे चोरी का दूसरा जो दोष हुआ , उसे मैं अधिक गम्भीर मानता हूँ । बीड़ी के दोष के समय मेरी उमर बारह तेरह साल की रही होगी ; शायद इससे कम भी हो । दूसरी चोरी के समय मेरी उमर पन्द्रह साल की रही होगी । यह चोरी मेरे माँसाहारी भाई के सोने के कड़े के टुकड़े की थी । उन पर मामूली सा, लगभग पच्चीस रुपये का कर्ज हो गया था । उसकी अदायगी के बारे हम दोनो भाई सोच रहे थे । मेरे भाई के हाथ में सोने का ठोस कड़ा था । उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल न था ।
कड़ा कटा । कर्ज अदा हुआ । पर मेरे लिए यह बात असह्य हो गयी । मैने निश्चय किया कि आगे कभी चोरी करुँगा ही नहीं । मुझे लगा कि पिताजी के सम्मुख अपना दोष स्वीकार भी कर लेना चाहिये । पर जीभ न खुली । पिताजी स्वयं मुझे पीटेंगे , इसका डर तो था ही नहीं । मुझे याद नहीं पड़ता कभी हममें से किसी भाई को पीटा हो । पर खुद दुःखी होगे, शायद सिर फोड़ लें । मैने सोचा कि यह जोखिम उठाकर भी दोष कबूल कर लेना चाहिये , उसके बिना शुद्धि नहीं होगी ।
आखिर मैने तय किया कि चिट्ठी लिख कर दोष स्वीकार किया जाये और क्षमा माँग ली जाये । मैंने चिट्ठी लिखकर हाथोहाथ दी । चिट्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सजा चाही । आग्रहपूर्वक बिनती की कि वे अपने को दुःख में न डाले और भविष्य मे फिर ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की ।
मैंने काँपते हाथों चिट्ठी पिताजी के हाथ में दी । मैं उनके तखत के सामने बैठ गया । उन दिनों वे भगन्दर की बीमारी से पीड़ित थे , इस कारण बिस्तर पर ही पड़े रहते थे । खटिया के बदले लकड़ी का तख्त काम में लाते थे ।
उन्होंने चिट्ठी पढ़ी । आँखों से मोती की बूँदे टपकी । चिट्ठी भीग गयी । उन्होंने क्षण भर के आँखें मूंदी , चिट्ठी फाड़ डाली और स्वयं पढ़ने के लिए उठ बैठे थे, सो वापस लौट गये ।
मैं भी रोया । पिताजी का दुःख समझ सका । अगर मैं चित्रकार होता, तो वह चित्र आज भी सम्पूर्णता से खींच सकता । आज भी वह मेरी आँखो के सामने इतना स्पष्ट हैं ।
मोती की बूँदों के उस प्रेमबाण ने मुझे बेध डाला । मैं शुद्ध बना । इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता हैं ।
रामबाण वाग्यां रे होय ते जाणे ।
(राम की भक्ति का बाण जिसे लगा हो वही जान सकता हैं ।)
मेरे लिए यह अंहिसा का पदार्थपाठ था । उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं देखा , पर आज मैं इसे शुद्ध अंहिसा के नाम से पहचान सकता हूँ । ऐसी अंहिसा के व्यापक रुप धारण कर लेने पर उसके स्पर्श से कौन बच सकता हैं ? ऐसी व्यापक अंहिसा की शक्ति की थाह लेना असम्भव हैं ।
इस प्रकार की शान्त क्षमा पिताजी के स्वभाव के विरुद्ध थी । मैने सोचा था कि वे क्रोध करेंगे, शायद अपना सिर पीट लेंगे । पर उन्होंने इतनी अपार शान्ति जो धारण की , मेरे विचार उसका कारण अपराध की सरल स्वीकृति थी । जो मनुष्य अधिकारी के सम्मुख स्वेच्छा से और निष्कपट भाव से अपराध स्वीकार कर लेता हैं और फिर कभी वैसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा करता हैं, वह शुद्धतम प्रायश्चित करता हैं ।
मैं जानता हूँ कि मेरी इस स्वीकृति से पिताजी मेरे विषय मे निर्भय बने और उनका महान प्रेम और भी बढ़ गया ।

पिताजी की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम
उस समय मैं सोलह वर्ष का था । हम ऊपर देख चुके हैं कि पिताजी भगन्दर की बीमारी से कारण बिल्कुल शय्यावश थे । उनकी सेवा में अधिकतर माताजी, घर का एक पुराना मौकर और मैं रहते थे । मेरे जिम्मे 'नर्स' का काम था । उनके घाव धोना, उसमें दवा डालना, मरहम लगाने के समय मरहम लगाना, उन्हें दवा पिलाना और जब घर पर दवा तैयार करना, यह मेरा खास काम था । रात हमेशा उनके पैर दबाना और इजाजत देने पर सोना, यह मेरा नियम था । मुझे यह सेवा बहुत प्रिय थी । मुझे स्मरण नहीं है कि मैं इसमें किसी भी दिन चूका होऊँ । ये दिन हाईस्कूल के तो थे ही । इसलिए खाने-पीने के बाद का मेरा समय स्कूल में या पिताजी की सेवा में ही बीतता था । जिस दिन उनकी आज्ञा मिलती और उनकी तबीयत ठीक रहती, उस दिन शाम को टहलने जाता था ।
इसी साव पत्नी गर्भवती हुई । मैं आज देख सकता हूँ कि इसमें दोहरी शरम थी । पहली शरम तो इस बात की कि विद्याध्ययन का समय होते हुए भी मैं संयम से न रह सका और दूसरी यह कि यद्यपि स्कूल की पढ़ाई को मैं अपना धर्म समझता था, और उससे भी अधिक माता-पिता की भक्ति को धर्म समझता था -- और सो भी इस हद तक कि बचपन से ही श्रवण को मैंने अपना आदर्श माना था -- फिर भी विषय-वासना मुझ पर सवारी कर सकी थी । मतलब यह कि यद्यपि रोज रात को मैं पिताजी के पैर तो दबाता था, लेकिन मेरा मन शयन-कक्ष की ओर भटकता रहता और सो भी ऐसे समय जब स्त्री का संग धर्मशास्त्र के अनुसार त्याज्य था । जब मुझे सेवा के काम से छुट्टी मिलती, तो मैं खुश होता और पिताजी के पैर छुकर सीधा शयन-कक्ष में पहुँच जाता ।
पिताजी की बीमारी बढ़ती जाती थी । वैद्यों ने अपने लेप आजमाये, हकीमों ने मरहम-पट्टियाँ आजमायी, साधारण हज्जाम वगैरा की घरेलू दवायें भी की ; अंग्रेज डाक्टर ने भी अपनी अक्ल आजमा कर देखी । अंग्रेज डाक्टर ने सुझाया कि शल्य-क्रिया की रोग का एकमात्र उपाय हैं । परिवार के एक मित्र वैद्य बीच में पड़े और उन्होंने पिताजी की उत्तरावस्था में ऐसी शल्य-क्रिया को नापसंद किया ।
तरह-तरह दवाओं की जो बोतले खरीदी थी वे व्यर्थ गई और शल्य-क्रिया नहीं हुई । वैद्यराज प्रवीण और प्रसिद्ध थे । मेरा ख्याल हैं कि अगर वे शल्य-क्रिया होने देते, तो घाव भरने में दिक्कत न होती ।शल्य-क्रिया उस समय के बम्बई के प्रसिद्ध सर्जन के द्वारा होने को थी । पर अन्तकाल समीप था , इसलिए उचित उपाय कैसे हो पाता ? पिताजी शल्य-क्रिया कराये बिना ही बम्बई से वापस आये । साथ में इस निमित्त से खरीदा हुआ सामान भी लेते आये । वे अधिक जीने की आशा छोड़ चुके थे । कमजोरी बढ़ती गयी और ऐसी स्थिति आ पहुँची कि प्रत्येक क्रिया बिस्तर पर ही करना जरुरी हो गया । लेकिन उन्होंने आखिरी घड़ी तक इसका विरोध ही किया और परिश्रम सहने का आग्रह रखा । वैष्णव धर्म का यह कठोर शासन हैं । बाह्य शुद्धि अत्यन्त आवश्यक हैं । पर पाश्चत्य वैद्यक-शास्त्र ने हमें सिखाया कि मल-मूत्र-विसर्जन की और स्नानादि की सह क्रियायें बिस्तर पर लेटे-लेटे संपूर्ण स्वच्छता के साथ की जा सकची हैं और रोगी को कष्ट उठाने की जरुरत नहीं पड़ती ; जब देखों तब उसका बिछौना स्वच्छ ही रहता हैं । इस तरब साधी गयी स्वच्छता को मै तो वैष्णव धर्म का ही नाम दूँगा । पर उस समय स्नानादि के लिए बिछौना छोड़ने का पिताजी का आग्रह देखकर मैं अश्चर्यचकित ही होता था और मन में उनकी स्तुति किया करता था ।
अवसान की घोर रात्रि समीप आई । उन दिनों मेरे चाचाजी राजकोट में थे । मेरा कुछ ऐसा ख्याल हैं कि पिताजी की बढ़ती हुई बीमारी के समाचार पाकर ही वे आये थे । दोनों भाईयों के बीच अटूट प्रेम था । चाचाजी दिन भर पिताजी के बिस्तर के पास ही बैठे रहते और हम सबको सोने की इजाजत देकर खुद पिताजी के बिस्तर के पास रोते । किसी को ख्याल नहीं था कि यह रात आखिरी सिद्ध होगी । वैसे डर तो बराबर बना ही रहता था । रात के साढ़े दस या ग्यारह बजे होगें । मैं पैर दबा रहा था । चाचाजी ने मुझसे कहा :'जा, अब मैं बैठूगाँ।' मैं खुश हुआ और सीधा शयन-कक्ष में पहुँचा । पत्नी तो बेचारी गहरी नींद में थी । पर मैं सोने कैसे देता ? मैने उसे जगाया । पाँच-सात मिनट ही बीते होगे , इतने मे जिस नौकर की मैं ऊपर चर्चा कर चुका हूँ, उसने आकर किवाड़ खटखटाया । मुझे धक्का सा लगा । मैं चौका । नौकर ने कहा : 'उठो, बापू बहुत बीमार हैं।' मैं जानता था वे बहुत बीमार तो थे ही, इसलिए यहाँ 'बहुत बीमार' का विशेष अर्थ समझ गया । एकदम बिस्तर से कूद गया।
'कह तो सही, बात क्या हैं?'
'बापू गुजर गये!'
मेरा पछताना किस काम आता ? मैं बहुत शरमाया । बहुत दुःखी हुआ । दौड़कर पिताजी के कमरे मे पहुँचा । बात समझ मे आयी कि अगर मैं विषयान्ध न होता तो इस अन्तिम घड़ी में यह वियोग मुझे नसीब न होता औऱ मैं अन्त समय तक पिताजी के पैर दबाता रहता । अब तो मुझे चाचाजी के मुँह से सुनना पड़ा : 'बापू हमें छोड़कर चले गये !' अपने बड़े भाई के परम भक्त चाचाजी अंतिम सेवा का गौरव पा गये । पिताजी को अपने अवसान का अन्दाजा हो चुका था । उन्होंने इशारा करके लिखने का सामान मँगाया और कागज में लिखा: 'तैयारी करो ।' इतना लिखकर उन्होंने हाथ पर बँधा तावीज तोड़कर पेंक दिया , सोने की कण्ठी भी तोड़कर फेंक दी और एक क्षण में आत्मा उड़ गयी ।
पिछले अध्याय में मैने अपनी जिस शरम का जिक्र किया हैं वह यहीं शरम हों -- सेवा के समय भी विषय की इच्छा ! इस काले दाग को आज तक नहीं मिटा सका । और मैंने हमेशा माना हैं कि यद्यपि माता-पिता के प्रति मेरा अपार भक्ति थी, उसके लिए सब कुछ छोड़ सकता था , तथापि सेवा के समय भी मेरा मन विषय को छोड़ नही सकता था । यह सेवा में रही हुई अक्षम्य त्रुटि थी । इसी से मैने अपने की एकपत्नी-व्रत का पालन करने वाला मानते हुए भी विषयान्ध माना हैं । इससे मुक्त होनें में मुझे बहुत समय लगा और मुक्त होने से पहले कई धर्म-संकट सहने पड़े ।
अपनी इस दोहरी शरम की चर्चा समाप्त करने से पहले मैं यह भी कह दूँ कि पत्नी के जो बालक जनमा वह दो-चार दिन जीकर चला गया । कोई दूसरा परिणाम हो भी क्या सकता था ? जिन माँ-बापों को अथवा जिन बाल-दम्पती को चेतना हो , वे इस दृष्टान्त से चेते ।

धर्म की झाँकी
छह या सात साल से लेकर सोलह साल की उमर तक मैने पढ़ाई की, पर स्कूल में कहीं भी धर्म की शिक्षा नहीं मिली । यों कह सकते हैं कि शिक्षकों से जो आसानी से मिलना चाहिये था वह नहीं मिला । फिर भी वातावरण से कुछ-न-कुछ तो मिलता ही रहा । यहाँ धर्म का उदार अर्थ करना चाहियें । धर्म अर्थात् आत्मबोध, आत्मज्ञान । मैं वैष्णव सम्प्रदाय में जन्मा था , इसलिए हवेली में जाने के प्रंसग बार-बार आते थे । पर उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई । हवेली का वैभव मुझे अच्छा नहीं लगा । हवेली में चलने वाली अनीति की बातें सुनकर उसके प्रति उदासिन बन गया । वहाँ से मुझे कुछ भी न मिला ।
पर जो हवेली से न मिला , वह मुझे अपनी धाय रम्भा से मिला । रम्भा हमारे परिवार की पुरानी नौकरानी थी । उसका प्रेम मुझे आज भी याद हैं । मैं ऊपर कह चुका हूँ कि मुझे भूत-प्रेत आदि का डर लगता था । रम्भा ने मुझे समझाया कि इसकी दवा रामनाम हैं । मुझे तो रामनाम से भी अधिक श्रद्धा रम्भा पर थी, इसलिए बचपन में भूत-प्रेतादि के भय से बचने के लिए मैने रामनाम जपना शुरु किया । यह जप बहुत समय तक नहीं चला । पर बचपन में जो बीच बोया गया, वह नष्ट नहीं हुआ । आज रामनाम मेरे लिए अमोघ शक्ति हैं । मैं मानता हूँ कि उसके मूल में रम्भाबाई का बोया हुआ बीज हैं ।
इसी अरसे में मेरे चाचाजी के एक लड़के ने, जो रामायण के भक्त थे , हम दो भाईयो को राम-रक्षा का पाठ सिखाने का व्यवस्था की । हमने उसे कण्ठाग्र कर लिया और स्नान के बाद उसके नित्यपाठ का नियम बनाया । जब तक पोरबन्दर रहे, यह नियम चला । राजकोट के वातावरण में यह टिक न सका । इस क्रिया के प्रति भी खास श्रद्धा नहीं था । अपने बड़े भाई के लिए मन में जो आदर था उसके कारण और कुछ शुद्ध उच्चारणों के साथ राम-रक्षा का पाठ कर पाते हैं इस अभिमान के कारण पाठ चलता रहा ।
पर जिस चीज का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा, वह था रामायण का पारायण । पिताजी की बीमारी का थोड़ा समय पोरबन्दर में बीता था । वहाँ वे रामजी के मन्दिर मे रोज रात के समय रामायण सुनते थे । सुनानेवाले थे बीलेश्वर के लाधा महाराज नामक एक पंडित थे । वे रामचन्द्रजी के परम भक्त थे । उनके बारे में कहा जाता था कि उन्हें कोढ़ की बीमारी हुई तो उसका इलाज करने के बदले उन्होंने बीलेश्वर महादेव पर चढे हुए बेलपत्र लेकर कोढ़ वाले अंग पर बाँधे और केवल रामनाम का जप शुरु किया । अन्त मे उनका कोढ़ जड़मूल से नष्ट हो गया । यह बात सच हो या न हो , हम सुनने वालों ने तो सच ही मानी । यह सच भी हैं कि जब लाधा महाराज ने कथा शुरु की तब उनका शरीर बिल्कुल नीरोग था । लाधा महाराज का कण्ठ मीठा था । वे दोहा-चौपाई गाते और उसका अर्थ समझाते था । स्वयं उसके रस में लीन हो जाते थे । और श्रोताजनों को भी लीन कर देते थे । उस समय मेरी उमर तेरह साल की रही होगी, पर याद पड़ता हैं कि उनके पाठ में मुझे खूब रस आता था । यह रामायण - श्रवण रामायण के प्रति मेरे अत्याधिक प्रेम की बुनियाद हैं । आज मैं तुलसीदास की रामायण को भक्ति मार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूँ ।
कुछ महीनों के बाद हम राजकोट आये । वहाँ रामायण का पाठ नहीं होता था । एकादशी के दिन भागवत जरुर पढ़ी जाती थी । मैं कभी-कभी उसे सुनने बैठता था । पर भटजी रस उत्पन्न नहीं कर सके । आज मैं यह देख सकता हूँ कि भागवत एक ऐसा ग्रंथ हैं, जिसके पाठ से धर्म-रस उत्पन्न किया जा सकता हैं । मैने तो से उसे गुजराती में बड़े चाव से पढ़ा हैं । लेकिन इक्कीस दिन के अपने उपवास काल में भारत-भूपण पंडित मदनमोहन मालवीय के शुभ मुख से मूल संस्कृत के कुछ अंश जब सुने तो ख्याल हुआ कि बचपन में उनके समान भगवद-भक्त के मुँह से भागवत सुनी होती तो उस पर उसी उमर में मेरा गाढ़ प्रेम हो जाता । बचपन में पड़े शूभ-अशुभ संस्कार बहुत गहरी जड़े जमाते हैं , इसे मैं खूब अनुभव करता हूँ ; और इस कारण उस उमर में मुझे कई उत्तम ग्रंथ सुनने का लाभ नहीं मिला, सो अब अखरता हैं । राजकोट में मुझे अनायास ही सब सम्प्रदायों के प्रति समान भाव रखने की शिक्षा मिली । मैने हिन्दू धर्म के प्रत्येक सम्प्रदाय का आदर करना सीखा , क्योकि माता-पिता वैष्णव-मन्दिर में , शिवालय में और राम-मन्दिर में भी जाते और हम भाईयों को भी साथ ले जाते या भेजते थे ।
फिर पिताजी के पास जैन धर्माचार्यों में से भी कोई न कोई हमेशा आते रहते थे । पिताजी के साथ धर्म और व्यवहार की बातें किया करते थे । इसके सिवा, पिताजी के मुसलमान और पारसी मित्र थे । वे अपने-अपने धर्म की चर्चा करते और पिताजी उनकी बातें सम्मान पूर्वक सुना करते थे । 'नर्स' होने के कारण ऐसी चर्चा के समय मैं अक्सर हाजिर रहता था । इस सारे वातावरण का प्रभाव मुझ पर पड़ा कि मुझ में सब धर्मों के लिए समान भाव पैदा हो गया ।
एक ईसाई धर्म अपवादरुप था । उसके प्रति कुछ अरुचि थी । उन दिनों कुछ ईसाई हाईस्कूल के कोने पर खड़े होकर व्याख्यान दिया करते थे । वे हिन्दू देवताओ की और हिन्दू धर्म को मानने वालो की बुराई करते थे । मुझे यह असह्य मालूम हुआ । मैं एकाध बार ही व्याख्यान सुनने के लिए खड़ा रहा होऊँगा । दूसरी बार फिर वहाँ खड़े रहने की इच्छा ही न हुई । उन्ही दिनो एक प्रसिद्ध हिन्दू के ईसाई बनने की बात सुनी । गाँव मे चर्चा थी कि उन्हें ईसाई धर्म की दीक्षा देते समय गोमाँस खिलाया गया और शराब पिलायी गयी । उनकी पोशाक भी बदल दी गयी औऱ ईसाई बनने के बाद वे भाई कोट-पतलून और अंग्रेजी टोपी पहनने लगे । इन बातों से मुझे पीड़ा पहुँची । जिस धर्म के कारण गोमाँस खाना पड़े, शराब पीनी पड़े और अपनी पोशाक बदलनी पड़े, उसे धर्म कैसे कहा जाय ? मेरे मन ने यह दलील की । फिस यह भी सुननें में आया कि जो भाई ईसाई बने थे, उन्होंने अपने पूर्वजों के धर्म की, रीति-रिवाजों और देश की निन्दा करना शुरू कर दिया था । इन सब बातों से मेरे मन में ईसाई धर्म के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गयी ।
इस तरह यद्यपि दूसरे धर्मो के प्रति समभाव जागा, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि मुझ में ईश्वर के प्रति आस्था थी । इन्हीं दिनों पिताजी के पुस्तक-संग्रह में से मनुस्मृति की भाषान्तर मेरे हाथ मे आया । उसमें संसार की उत्पत्ति आदि की बाते पढ़ी । उन पर श्रद्धा नहीं जमी, उलटे थोड़ी नास्तिकता ही पैदा हुई । मेरे चाचाजी के लड़के की , जो अभी जीवित हैं , बुद्धि पर मुझे विश्वास था । मैने अपनी शंकाये उनके सामने रखी , पर वे मेरा समाधान न कर सके । उन्होंने मुझे उत्तर दिया : 'सयाने होने पर ऐसे प्रश्नों के उत्तर तुम खुद दे सकोगे । बालको को ऐसे प्रश्न नहीं पूछने चाहिये ।' मैं चुप रहा । मन को शान्ति नहीं मिली । मनुस्मृति के खाद्य-विषयक प्रकरण में और दूसरे प्रकरणों में भी मैने वर्तमान प्रथा का विरोध पाया । इस शंका का उत्तर भी मुझे लगभग ऊपर के जैसा ही मिला । मैने यह सोचकर अपने मन को समझा लिया कि 'किसी दिन बुद्धि खुलेगी, अधिक पढूँगा और समझूँगा ।' उस समय मनुस्मृति को पढ़कर में अहिंसा तो सीख ही न सका । माँसाहार की चर्चा हो चुकी हैं । उसे मनुस्मृति का समर्थन मिला । यह भी ख्याल हुआ कि सर्पादि और खटमल आदि को मारनी नीति हैं । मुझे याद हैं कि उस समय मैने धर्म समझकर खटमल आदि का नाश किया था ।
पर एक चीज ने मन में जड़ जमा ली -- यह संसार नीति पर टिका हुआ हैं । नीतिमात्र का समावेश सत्य में हैं । सत्य को तो खोजना ही होगा । दिन-पर-दिन सत्य की महीमा मेरे निकट बढ़ती गयी । सत्य की व्याख्या विस्तृत होती गयी , और अभी हो रही हैं ।
फिर नीति का एक छप्पय दिल में बस गया । अपकार का बदला अपकार नहीं, उपकार ही हो सकता हैं , यह एक जीवन सूत्र ही बन गया । उसमे मुझ पर साम्राज्य चलाना शुरु किया । अपकारी का भला चाहना और करना , इसका मैं अनुरागी बन गया । इसके अनगिनत प्रयोग किये। वह चमत्कारी छप्पय यह हैं :
पाणी आपने पाय, भलुं भोजन तो दीजे
आवी नमावे शीश , दंडवत कोडे कीजे ।
आपण घासे दाम, काम महोरोनुं करीए
आप उगारे प्राण, ते तणा दुःखमां मरीए ।
गुण केडे तो गुण दश गणो, मन, वाचा, कर्मे करी
अपगुण केडे जो गुण करे, तो जगमां जीत्यो सही ।
(जो हमें पानी पिलाये , उसे हम अच्छा भोजन कराये । जो हमारे सामने सिर नवाये, उसे हम उमंग से दण्डवत् प्रणाम करे । जो हमारे लिए एक पैसा खर्च करे, उसका हम मुहरों की कीमत का काम कर दे । जो हमारे प्राण बचाये , उसका दुःख दूर करने के लिए हम अपने प्राणो तक निछावर कर दे । जो हमारी उपकार करे , उसका हमे मन, वचन और कर्म से दस गुना उपकार करना ही चाहिये । लेकिन जग मे सच्चा और सार्थक जीना उसी का हैं , जो अपकार करने वाले के प्रति भी उपकार करता हैं ।)

विलायत की तैयारी
सन् 1886 में मैने मैट्रिक की परीक्षा पास की । देश की और गाँधी-कुटुम्ब की गरीबी ऐसी थी कि अहमदाबाद और बम्बई -- जैसे परीक्षा के दो केन्द्र हो, तो वैसी स्थितिवाले काठियावाड़-निवासी नजदीक के और सस्ते अहमदाबाद को पसन्द करते थे । वही मैंने किया । मैने पहले-पहले राजकोट से अहमदाबाद की यात्रा अकेले की ।
बड़ो की इच्छा थी कि पास हो जाने पर मुझे आगे कॉलेज की पढ़ाई करनी चाहिये । कॉलेज बम्बई में भी था और भावनगर का खर्च कम था । इसलिए भावनगर के शामलदास कॉलेज में भरती होने का निश्चय किया । कॉलेज में मुझे कुछ आता न था । सब कुछ मुश्किल मालूम होता था । अध्यापकों का नहीं, मेरी कमजोरी का ही था । उस समय के शामलदास कॉलेज के अध्यापक तो प्रथम पंक्ति के माने जाते थे । पहला सत्र पूरा करके मैं घर आया ।
कुटुम्ब के पुराने मित्र और सलाहकार एक विद्वान , व्यवहार -कुशल ब्राह्मण मावजी दवे थे । पिताजी के स्वर्गवास के बाद भी उन्होंने कुटुम्ब के साथ सम्बन्ध बनाये रखा था । वे छुट्टी के इन दिनों में घर आये । माताजी और बड़े भाई के साथ बातचीत करते हुए उन्होंने मेरी पढ़ाई के बारे में पूछताछ की । जब सुना कि मैं शामलदास कॉलेज में हूँ , तो बोले , 'जमान बदल गया हैं । तुम भाईयों में से कोई कबा गाँधी की गद्दी संभालना चाहे तो बिना पढ़ाई के वह नहीं होगा । यह लड़का अभी पढ़ रहा हैं, इसलिए गद्दी संभालने का बोझ इससे उठवाना चाहिये । इसे चार-पाँच साल तो अभी बी. ए. होने में लग जायेगे , और इतना समय देने पर भी इसे 50-0 रुपये की मौकरी मिलेगी, दीवानगीरी नहीं । और अगर उसके बाद इसे मेरे लड़के की तरह वकील बनाये, तो थोड़े वर्ष और लग जायेगे और तब तक तो दीवानगीरी के लिए वकील भी बहुत से तैयार हो चुकेंगे । आपको इसे विलायत भेजना चाहिये । केवलराम (भावजी दवे का लड़का) कहता हैं कि वहाँ की पढ़ाई सरल हैं । तीन साल में पढ़कर लौट आयेगा । खर्च भी चार-पाँच हजार से अधिक नहीं होगा । नये आये हुए बारिस्टरों को देखों, वे कैसे ठाठ से रहते हैं! वे चाहे तो उन्हें दीवानगीरी आज मिल सकती हैं । मेरी तो सलाह है कि आप मोहनदास को इसी साल विलायत भेज दीजिये । विलायत मे मेरे केवलराम के कई दोस्त हैं, वह उनके नाम सिफारसी पत्र दे देगा, तो इसे वहाँ कोई कठिनाई नहीं होगी ।'
जोशीजी ने (मावजी दवे को हम इसी नाम से पुकारते थे) मेरी तरफ देखकर मुझसे ऐसे लहजे में पूछा, मानो उनकी सलाह के स्वीकृत होने में उन्हें कोई संका ही न हो ।
'क्यों, तुझे विलायत जाना अच्छा लगेगा या यही पढ़ते रहना? ' मुझे जो भाता था वहीं वैद्य मे बता दिया । मैं कॉलेज की कठिनाईयों से डर तो गया ही था । मैनें कहा, 'मुझे विलायत भेजे , तो बहुत ही अच्छा हैं । मुझे नही लगता कि मैं कॉलेज में जल्दी-जल्दी पास हो सकूँगा । पर क्या मुझे डॉक्टरी सीखने के लिए नहीं भेजा जा सकता ?'
मेरे भाई बीच में बोले : 'पिताजी को यह पसन्द न था । तेरी चर्चा निकलने पर वे यहीं कहते कि हम वैष्णव होकर हाड़-माँस की चीर-फाड़ का का न करे । पिताजी तो मुझे वकील ही बनाना चाहते थे ।'
जोशीजी ने समर्थन किया : 'मुझे गाँधीजी की तरह डॉक्टरी पेशे से अरुचि नहीं हैं । हमारे शास्त्र इस धंधे की निन्दा नहीं करते । पर डॉक्टर बनकर तू दीवान नहीं बन सकेगा । मैं तो तेरे लिए दीवान-पद अथवा उससे भी अधिक चाहता हूँ । तभी तुम्हारे बड़े परिवार का निर्वाह हो सकेगा । जमाना बदलता जा रहा हैं और मुश्किल होता जाता हैं । इसलिए बारिस्टर बनने में ही बुद्धिमानी हैं ।' माता जी की ओर मुड़कर उन्होंने कहा : 'आज तो मैं जाता हूँ । मेरी बात पर विचार करके देखिये । जब मैं लौटूँगा तो तैयारी के समाचार सुनने की आशा रखूँगा । कोई कठिनाई हो तो मुझसे कहियें ।'
जोशीजी गये और मैं हवाई किले बनाने लगा ।
बड़े भाई सोच में पड़ गये । पैसा कहाँ से आयेगा ? और मेरे जैसे नौजवान को इतनी दूर कैसे भेजा जाये !
माताजी को कुछ सूझ न पड़ा । वियोग की बात उन्हें जँची ही नहीं । पर पहले तो उन्होंने यही कहा : 'हमारे परिवार में अब बुजुर्ग तो चाचाजी ही रहे हैं। इसलिए पहले उनकी सलाह लेनी चाहिये । वे आज्ञा दे तो फिर हमें सोचना होगा ।'
बड़े भाई को दूसरा विचार सूझा : 'पोरबन्दर राज्य पर हमारा हक हैं । लेली साहब एडमिनिस्ट्रेटर हैं । हमारे परिवार के बारे में उनका अच्छा ख्याल हैं । चाचाजी पर उनकी खास मेहरबानी हैं । सम्भव हैं, वे राज्य की तरफ से तुझे थोड़ी बहुत मदद कर दे ।'
मुझे यह सब अच्छा लगा । मै पोरबन्दर जाने के लिए तैयार हुआ । उन दिनों रेल नहीं थी । बैलगाड़ी का रास्ता था । पाँच दिन में पहुँचा जाता था । मैं कर चुका हूँ कि मैं खुद डरपोक था । पर इस बार मेरा डर भाग गया । विलायत जाने की इच्छा ने मुझे प्रभावित किया । मैने धोराजी तक की बैलगाड़ी की । धोराजी से आगे, एक दिन पहले पहुँचने के विचार से, ऊँट किराये पर लिया । ऊँट की सवारी का भी मेरा यब पहला अनुभव था ।
मैं पोरबन्दर पहुँचा । चाचाजी को साष्टांग प्रणाम किया । सारी बात सुनीयी । उन्होंने सोचकर दिया : 'मैं नहीं जानता कि विलायत जाने पर हम धर्म की रक्षा कर सकते हैं या नहीं । जो बाते सुनता हूँ उससे तो शक पैदा होता हैं । मैं जब बड़े बारिस्टरों से मिलता हूँ , तो उनकी रहन-सहन में और साहबों की रहन-सहन में कोई भेद नहीं पाता । खाने-पीने का कोई बंधन उन्हें नहीं ही होता। सिगरेट तो कभी उनके मुँह से छूटती नहीं । पोशाक देखो तो वह भी नंगी । यह सब हमारे कुटुम्ब को शोभा न देगा । पर मैं तेरे साहस में बाधा नहीं डालना चाहता । मैं तो कुछ दिनों बाद यात्रा पर जाने वाला हूँ । अब मुझे कुछ ही साल जीना हैं । मृत्यु के किनारे बैठा हुआ मैं तुझे विलायत जाने की -- समुंद्र पार करने की इजाजत कैसे दूँ? लेकिन में बाधक नहीं बनूँगा । सच्ची इजाजत को तेरी माँ की हैं । अगर वह इजाजत दे दे तो तू खुशी-खुशी से जाना । इतना कहना कि मैं तुझे रोकूँगा नहीँ । मेरा आशीर्वाद तो तुझे हैं ही । '
मैने कहा :'इससे अधिक की आशा तो मैं आपसे रख नहीं सकता । अब तो मुझे अपनी माँ को राजी करना होगा । पर लेली साहब के नाम आप मुझे सिफारिशी पत्र तो देंगे न?'
चाचाजी ने कहा: 'सो मैं कैसे दे सकता हूँ ? लेकिन साहब सज्जन हैं , तू पत्र लिख । कुटुम्ब की परिचय देना । वे जरूर तुझे मिलने का समय देंगे , और उन्हें रुचेगा तो मदद भी करेंगे ।'
मैं नहीं जानता कि चाचाजी ने साहब के नाम सिफारिश का पत्र क्यों नहीं दिया । मुझे धुंधली-सी याद हैं कि विलायत जाने के धर्म-विरुद्ध कार्य में इस तरह सीधी मदद करने मे उन्हें संकोच हुआ ।
मैने लेली साहब को पत्र लिखा । उन्होंने अपने रहने के बंगले पर मुझे मिलने बुलाया । उस बंगले की सीढियों को चढ़ते वे मुझसे मिल गये , और मुझे यह कहकर चले गये : 'तू बी.ए. कर ले, फिर मुझ से मिलना । अभी कोई मदद नही दी जा सकेगी ।' मैं बहुत तैयारी करके, कई वाक्य रटकर गया था । नीचे झुककर दोनों हाथो से मैंने सलाम किया था । पर मेरी सारी मेहनत बेकार हूई!
मेरी दृष्टि पत्नी के गहनो पर गयी । बड़े भाई के प्रति मेरी अपार श्रद्धा थी । उनकी उदारता की सीमा न थी । उनका प्रेम पिता के समान था ।
मैं पोरबन्दर से बिदा हुआ । राजकोट आकर सारी बातें उन्हें सुनाई । जोशीजी के साथ सलाह की । उन्होंने कर्ज लेकर भी मुझे भेजने की सिफारिश की । मैने अपनी पत्नी के हिस्से के गहने बेच डालने का सुभाव रखा । उनसे 2-3 हजार रुपये से अधिक नही मिल सकते थे । भाई ने, जैसे भी बने, रुपयो का प्रबंध करने का बीड़ा उठाया ।
माताजी कैसे समझती ? उन्होंने सब तरफ की पूछताछ शुरु कर दी थी । कोई कहता, नौजवान विलायत जाकर बिगड़ जाते हैं ; कोई कहता, वे माँसाहार करने लगते हैं ; कोई कहता, वहाँ तो शराब के बिना तो चलता ही नहीँ । माताजी ने मुझे ये सारी बाते सुनायी । मैने कहा, ' पर तू मेरा विश्वास नहीं करेगी ? मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मैं इन तीनों चीजों से बचूँगा । अगर ऐसा खतरा होता तो जोशीजी क्यों जाने देते ?'
माताजी बोली, 'मुझे तेरा विश्वास हैं । पर दूर देश में क्या होगा ? मेरी तो अकल काम नहीं करती । मैं बेचरजी स्वामी से पूछँगी ।'
बेचरजी स्वामी मोढ़ बनियों से बने हुए एक जैन साधु थे । जोशीजी की तरह वे भी हमारे सलाहकार थे । उन्होंने मदद की । वे बोले : 'मैं इन तीनों चीजों के व्रत दिलाऊँगा । फिर इसे जाने देने में कोई हानि नहीँ होगी ।' उन्होंने प्रतिज्ञा लिवायी और मैंने माँस, मदिरा तथा स्त्री-संग से दूर रहने की प्रतिज्ञा की । माताजी मे आज्ञा दी ।
हाईस्कूल में सभा हुई । राजकोट का एक युवक विलायत जा रहा हैं , यह आश्चर्य का विषय बना । मैं जवाब के लिए कुछ लिखकर ले गया था । जवाब देते समय उसे मुश्किल से पढ़ पाया । मुझे इतना याद हैं कि मेरा सिर घूम रहा था और शरीर काँप रहा था ।
बड़ों के आशीर्वाद लेकर मैं बम्बई के लिए रवाना हूआ । बम्बई की यह मेरी पहली यात्रा थी । बड़े भाई साथ आये ।
पर अच्छे काम में सौ विध्न आते हैं । बम्बई का बन्दरगाह जल्दी छूट न सका ।

जाति से बाहर
माताजी की आज्ञा और आशीर्वाद लेकर और पत्नी की गोद में कुछ महीनों का बालक छोड़कर मैं उमंगों के साथ बम्बई पहुँचा । पहुँच तो गया, पर वहाँ मित्रो ने भाई को बताया कि जून-जूलाई में हिन्द महासागर में तूफान आते हैं और मेरी यह पहली ही समुद्री यात्रा हैं, इसलिए मुझे दीवाली के बाद यानी नवम्बर में रवाना करना चाहिये । और किसी ने तूफान में किसी अगनबोट के डूब जाने की बात भी कही । इससे बड़े भाई घबराये । उन्होंने ऐसा खतरा उठाकर मुझे तुरन्त भेजने से इनकार किया और मुझको बम्बई में अपने मित्र के घर छोडकर खुद वापस नौकरी पर हाजिर होने के लिए राजकोट चले गये । वे एक बहनोई के पास पैसे छोड़ गये और कुछ मित्रों से मेरी मदद करने की सिफारिश करते गयो ।
बम्बई में मेरे लिए दिन काटना मुश्किल हो गया । मुझे विलायत के सपने आते ही रहते थे ।
इस बीच जाति में खलबली मची । जाति की सभा बुलायी गयी । अभी तक कोई मोढ़ बनिया विलायत नही गया था । और मैं जा रहा हूँ , इसलिए मुझसे जवाब तलब किया जाना चाहिये । मुझे पंचायत में हाजिर रहने का हुक्म मिला । मैं गया । मैं नहीं जानता कि मुझ में अचानक हिम्मत कहाँ से आ गयी । हाजिर रहने में मुझे न तो संकोच हुआ , न डर लगा । जाति के सरपंच के साथ दूर का रिश्ता भी था । पिताजी के साथ उनका संबंध अच्छा था । उन्होने मुझसे कहा: 'जाति का ख्याल हैं कि तूने विलायत जाने का जो विचार किया हैं वह ठीक नहीं हैं । हमारे धर्म में समुद्र पार करने की मनाही हैं , तिस पर यह भी सुना जाता है कि वहाँ पर धर्म की रक्षा नहीं हो पाती । वहाँ साहब लोगों के साथ खाना-पीना पड़ता हैं ।'
मैंने जवाब दिया , 'मुझे तो लगता हैं कि विलायत जाने में लेशमात्र भी अधर्म नहीं हैं । मुझे तो वहाँ जाकर विद्याध्ययन ही करना हैं । फिर जिन बातों का आपको डर हैं, उनसे दूर रहने की प्रतिक्षा मैने अपनी माताजी के सम्मुख ली हैं, इसलिए मैं उनसे दूर रह सकूँगा ।'
सरपंच बोले: 'पर हम तुझसे कहते हैं कि वहाँ धर्म की रक्षा नहीं हो ही नहीं सकती । तू जानता है कि तेरे पिताजी के साथ मेरा कैसा सम्बन्ध था । तुझे मेरी बात माननी चाहिये ।'
मैने जवाब मे कहा, 'आपके साथ के सम्बन्ध को मैं जानता हूँ । आप मेरे पिता के समान हैं । पर इस बारे में मैं लाचार हूँ । विलायत जाने का अपना निश्चय मैं बदल नहीं सकता । जो विद्वान ब्राह्मण मेरे पिता के मित्र और सलाहकार हैं , वे मानते मानते हैं कि मेरे विलायत जाने में कोई दोष नहीं हैं । मुझे अपनी माताजी और अपने भाई की अनुमति भी मिल चुकी हैं ।'
'पर तू जाति का हुक्म नहीं मानेगा?'
'मैं लाचार हूँ । मेरा ख्याल हैं कि इसमें जाति को दखल नहीं देना चाहिये ।'
इस जवाब से सरपंच गुस्सा हुए । मुझे दो-चार बाते सुनायीं । मैं स्वस्थ बैठा रहा । सरपंच ने आदेश दिया, 'यह लड़का आज से जातिच्युत माना जायेगा । जो कोई इसकी मदद करेगा अथवा इसे बिदा करने जायेगा , पंच उससे जवाब तलब करेगे और उससे सवा रुपया दण्ड का लिया जायेगा ।'
मुझ पर इस निर्णय का कोई असर नहीं हुआ । मैने सरपंच से बिदा ली । अब सोचना यह था कि इस निर्णय का मेरे भाई पर क्या असर होगा । कहीं वे डर गये तो ? सौभाग्य से वे दृढ़ रहे और जाति के निर्णय के बावजूद वे मुझे विलायत जाने से नहीं रोकेंगे ।
इस घटना के बाद मैं अधिक वेचैन हो गया ? दुसरा कोई विध्न आ गया तो ? इस चिन्ता में मैं अपने दिन बिता रहा था ति इतने में खबर मिली कि 4 सितम्बर को रवाना होने वाले जहाज में जूनागढ़ के एक वकील बारिस्टरी के लिए विलायत जानेवाले हैं । बड़े भाई ने जिन के मित्रों से मेरे बारे में कह रखा था , उनसे मैं मिला । उन्होंने भी यह साथ न छोड़ने की सलाह दी । समय बहुत कम था । मैने भाई को तार किया और जाने की इजाजत माँगी । उन्होने इजाजत दे दी । मैने बहनोई से पैसे माँगे । उन्होंने जाति के हुक्म की चर्चा की । जाति-च्युत होना उन्हें न पुसाता न था । मै अपने कुटुम्ब के एक मित्र के पास पहुँचा औऱ उनसे विनती की कि वे मुझे किराये वगैरा के लिए आवश्यक रकम दे दे और बाद में भाई से ले ले । उन मित्र ने ऐसा करना कबूल किया, इतना ही नहीं , बल्कि मुझे हिम्मत भी बँधायी । मैने उनका आभार माना , पैसे लिये और टिकट खरीदा ।
विलायत की यात्रा का सारा सामान तैयार करना था । दूसरे अनुभवी मित्र नें सामान तैयार करा दिया । मुझे सब अजीब सा लगा। कुछ रुचा, कुछ बिल्कुल नहीं । जिस नेकटाई को मैं बाद में शौक से लगाने लगा, वह तो बिल्कुल नही रुची । वास्कट नंगी पोशाक मालूम हुई।
पर विलायत जाने के शौक की तुलना में यह अरुचि कोई चीज न थी । रास्ते में खाने का सामान भी पर्याप्त ले लिया था ।
मित्रों ने मेरे लिए जगह भी त्र्यम्बकराय मजमुदार (जूनागढ़ के वकील का नाम ) की कोठरी में ही रखी थी। उनसे मेरे विषय में कह भी दिया था । वे प्रौढ़ उमर के अनुभवी सज्जन थे । मैं दुनिया के अनुभव से शून्य अठारह साल का नौजवान था । मजमुदार ने मित्रों से कहा, 'आप इसकी फिक्र न करें ।'
इस तरह 1888 के सितम्बर महीने की 4 तारीख को मैने बम्बई का बन्दरगाह छोड़ा ।

आखिर विलायत पहुँचा
जहाज में मुझे समुद्र का जरा भी कष्ट नहीं हुआ । पर जैसे-जैसे दिन बीतते जाते, वैसे-वैसे मैं अधिक परेशान होता जाता था । 'स्टुअर्ड' के साथ बातचीत करने में भी शरमाता था । अंग्रेजी में बात करने की मुझे आदत ही न थी । मजमुदार को छोड़कर दूसरे सब मुसाफिर अंग्रेज थे । मैं उनके साथ बोल न पाता था । वे मुझ से बोलने का प्रयत्न करते, तो मैं समझ न पाता, और समझ लेता तो जवाब क्या देना सो सूझता न था । बोलने से पहले हरएक वाक्य को जमाना पड़ता था । काँटे-चम्मच से खाना आता न था, और किस पदार्थ में माँस हैं, यह पूछने की हिम्मत नहीं होती थी । इसलिए मैं खाने की मेज पर तो कभी गया ही नहीं । अपनी कोठरी में ही खाता था । अपने साथ खास करके जो मिठाई वगैरा लाया था , उन्हीं से काम चलाया । मजमुदार को ते कोई संकोच न था । वे सबके साथ घुलमिल गये थे । डेक पर भी आजादी से जाते थे । मैं सारे दिन कोठरी में बैठा रहता था । कभी-कभार, जब डेक पर थोडे लोग होते , तो कुछ देर वहाँ जाकर बैठ लेता था। मजमुदार मुझे समझाते कि सब के साथ घुलो-मिलो आजादी से बातचीत करो; वे मुझ से यह भी कहते कि वकील की जीभ खूब चलनी चाहिये । वकील के नाते वे अपने अनुभव सुनाते और कहते कि अंग्रेजी हमारी भाषा नहीं हैं, उसमे गलतियाँ तो होगी ही, फिर भी खुलकर बोलते रहना चाहियें । पर मैं अपनी भीरुता छोड़ न पाता था ।
मुझ पर दया करके एक भले अंग्रेज नें मुझसे बातचीत शुरु की । वे उमर में बड़े थे । मैं क्या खाता हूँ, कौन हूँ, कहाँ जा रहा हूँ, किसी से बातचीत क्यो नहीं करता , आदि प्रश्न वे पूछते रहते । उन्होंने मुझे खाने की मेज पर जाने की सलाह दी । माँस न खाने के मेरे आग्रह की बात सुनकर वे हँसे और मुझ पर तरस खाकर बोले, 'यहाँ तो (पोर्टसईद पहुँचने से पहले तक) ठीक हैं, पर बिसके की खाड़ी में पहुँतने पर तुम्हें अपना विचार बदल लोगे । इंगलैंड में तो इतनी ठंड पड़ती हैं कि माँस खाये बिना चलता ही नहीँ ।'
मैने कहा, 'मैंन सुना हैं कि वहाँ लोग माँसाहार के बिना रह सकते हैं ।'
वे बोले, 'इसे गलत समझो। अपने परिचितों में मैं ऐसे किसी आदमी को नहीं जानता, जो माँस न खाता हो। सुनों, मैं शराब पीता हूँ, पर तुम्हें पीने के लिए नहीँ कह सकता । लेकिन मैं समझता हूँ कि तुम्हें माँस को खाना ही चाहिये। '
मैंने कहा, 'इस सलाह के लिए मैं आपका आभार मानता हूँ, पर माँस न खाने के लिए मैं अपनी माताजी से वचनबद्ध हूँ । इस कारण मैं माँस नहीँ खा सकता । अगर उसके बिना काम न चला तो मैं वापस हिन्दुस्तान चला जाऊँगा , पर माँस तो कभी न खाऊँगा ।'
बिस्के की खाड़ी आयी । वहाँ भी मुझे न तो माँस की जरुरत मालूम हूई और न मदिरा की । मुझसे कहा गया कि मैं माँस न खाने के प्रमाण पत्र इक्टठा कर लूँ । इसलिए इन अंग्रेज मित्र से मैने प्रमाण पत्र माँगा । उन्होंने खुशी-खुशी दे दिया । कुछ समय तक मैं उसे धन की तरह संभाले रहा । बाद में मुझे पता चला कि प्रमाण-पत्र तो माँस खाते हुए भी प्राप्त किये जा सकते है । इसलिए उनके बारे में मेरा मोह नष्ट हो गया । अगर मेरी बात पर भरोसा नहीं हैं तो ऐसे मामले में प्रमाण -पत्र दिखा कर मुझे क्या लाभ हो सकता हैं ?
दुःख-सुख सहते हुए यात्रा समाप्त करके हम साउदेम्प्टन बन्दरगाह पर पहुँचे । मुझे याद हैं कि उस दिन शनिवार था । जहाज पर मैं काली पोशाक पहनता था । मित्रों ने मेरे लिए सफेद फलालैन के कोट-पतलून भी बनवा दिये थे । उन्हें मैने विलायत में उतरते समय पहनने का विचार कर रखा था, यह समझकर कि सफेद कपड़े अधिक अच्छे लगेगे ! मैं फलालैन का सूट पहनकर उतरा । मैने वहाँ इस पोशाक में एक अपने को ही देखा । मेरी पेटियाँ और उनकी चाबियाँ तो ग्रिण्डले कम्पनी के एजेण्ट ले गये थे । सबकी तरह मुझे भी करना चाहिये, यह सोच कर मैं तो अपनी चाबियों भी दे दी थी ।
मेरे पास चार सिफारशी पत्र थे: डॉक्टर प्राणजीवन महेता के नाम, दलपतराम शुक्ल के नाम , प्रिंस रणजीतसिंह के नाम और दादाभाई नौरोजी का नाम । मैने साउदेम्प्टन से डॉक्टर महेता को एक तार भेजा था । जहाज में किसी ने सलाह दी थी कि विक्टोरिया होटल में ठहरना चाहियें । इस कारण मजमुदार और मैं उस होटल में पहुँचे । मैं अपनी सफेद पोशाक की शरम से गड़ा जा रहा था । तिस पर होटल में पहुँचने पर पता चला कि अगले दिन रविवार होने से ग्रिण्डले के यहाँ से सामान नहीं आयेगा । इससे मैं परेशान हुआ ।
सात-आठ बजे डॉक्टर महेता आये । उन्होने प्रेमभरा विनोद किया । मैंने अनजाने रेशमी रोओंवाली उनकी टोपी देखने के ख्याल से उठायी और उसपर उलटा हाथ फेरा । इससे टोपी के रोएं खड़े हो गये । डॉक्टर महेता ने देखा , मुझे तुरन्त ही रोका । पर अपराध तो हो चुका था । उनके रोकने का नतीजा तो यही निकल सकता था कि दुबारा वैसा अपराध न हो ।
समझियें कि यही से यूरोप के रीति-रिवाजों के सम्बन्ध में मेरी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ । डॉक्टर महेता हँसते-हँसेते बहुत-सी बाते समझाते जाते थे । किसी की चीज छूनी चाहियें , किसी से जान-पहचान होने पर जो प्रश्न हिन्दुस्तान में यो ही पूछे जा सकते हैं , वे यहाँ नहीं पूछे जा सकते , बाते करते समय ऊँची आवाज से नहीं बोल सकते, हिन्दुस्तान में अंग्रेजो से बात करते समय 'सर' कहने का जो रिवाज हैं, वह यहाँ अनावश्यक हैं , 'सर' तो नौकर अपने मालिक से अथवा बड़े अफसर से कहता हैं । फिर उन्होंने होटल में रहने के खर्च की भी चर्चा की और सुझाया कि किसी निजी कुटुम्ब में रहने की जरुरत पड़ेगी । इस विषय में अधिक विचार सोमवार पर छोड़ा गया । कई सलाहें देकर डॉक्टर महेता बिदा हुए ।
होटल में आकर हम दोनों को यही लगा कि यहाँ कहाँ आ फँसे । होटल महँगा भी था । माल्टा से एक सिन्धी यात्री जहाज पर सवार हुए थे । मजमुदार उनसे अच्छे से घुलमिल गये थे । ये सिन्धी यात्री लंदन के अच्छे जानकार थे । उन्होंने हमारे लिए दो कमरे किराये पर लेने की जिम्मेदारी उठायी । हम सहमत हुए और सोमवार को जैसे ही सामान मिला, बिल चुका कर उक्त सिन्धी सज्जन द्वारा ठीक किये कमरों में हमने प्रवेश किया ।
मुझे याद हैं कि मेरे हिस्से का होटल का बिल लगभग तीन पौड़ का हुआ था । मैं तो चकित ही रह गया । तीन पौड देने पर भी भूखा रहा । होटल की कोई रुचती नहीँ थी, दूसरी ली, पर दाम तो दोनो के चुकाने चाहिये । यह कहना ठीक होगा कि अभी तो मेरा काम बम्बई से लाये हुए पाथेय से ही चल रहा था ।
इस कमरे में भी मैं परेशान रहा । देश की याद खूब आती थी । माताजी का प्रेम मूर्तिमान होता था । रात पड़ती और मैं रोना शुरु करता । घर की अनेक स्मृतियों की चढ़ाई के कारण नींद तो आ ही कैसे सकती थी ? इस दुःख की चर्चा किसी से की भी नहीं जा सकती थी , करने से लाभ भी क्या था ? मैं स्वयं नहीं जानता था कि किस उपाय से मुझे आश्वासन मिलेगा ।
यहाँ के लोग विचित्र, रहन सहन निचित्र , घर भी विचित्र, घरों में रहने का ढंग भी विचित्र ! क्या कहने और क्या करने से यहाँ शिष्टाचार के नियमों का उल्लंघन होगा , इसकी जानकारी भी मुझे बहुत कम थी । तिस पर खाने-पीने की परहेज, और खाने योग्य आहार सूखा तथा नीरस लगता था । इस कारण मेरी दशा सरौते के बीच सुपारी जैसी हो गयी । विलायत में रहना मुझे अच्छा नहीं लगता था और देश भी लौटा नहीं जा सकता था । विलायत पहुँच जाने पर तो तीन साल वहाँ पूरे करने का मेरा आग्रह था ।

मेरी पसंद
डॉक्टर महेता सोमवार को मुझसे मिलने विक्टोरिया होटल पहुँचे । वहाँ उन्हें हमारा नया पता मिला, इससे वे नयी जगह आकर मिले । मेरी मूर्खता के कारण जहाज मे मुझे दाद हो गयी थी । जहाज में खारे पानी से नहाना होता था । उसमें साबुन घुलता था । लेकिन मैने तो साबुन का उपयोग करने में सभ्यता समझी । इससे शरीर साफ होने के बदले चीकट हो गया । उससे दाद हो गयी । डॉक्टर को दिखाया । उन्होने एसेटिक एसिड दी । इस दवाने मुझे रुलाया । डॉक्टर महेता ने हमारे कमरे वगैरा देखे और सिर हिलाया, 'यह जगह काम की नहीं । इस देश में आकर पढ़ने की अपेक्षा यहाँ के जीवन और रीतिृरिवाज का अनुभव प्राप्त करना ही अधिक महत्त्वपूर्ण हैं । इसके लिए किसी परिवार में रहना जरुरी हैं । पर अभी तो मैने सोचा है कि तुम्हें कुछ तालीम मिल सके, इसके लिए मेरे मित्र के घर रहो । मैं तुम्हें वहाँ ले जाऊँगा ।'
मैने आभारपूर्वक उनका सुझाव मान लिया । मैं मित्र के घर पहुँचा । उनके स्वागत -सत्कार में कोई कमी नहीं थी । उन्होंने मुझे अपने सगे भाई की तरह रखा, अंग्रेजी रीति-रिवाज सिखाये , यह कह सकता हूँ कि अंग्रेजी में थोड़ी बातचीत करने की आदत उन्हीं ने डलवाई ।
मेरे भोजन का प्रश्न बहुत विकट हो गया । बिना नमक और मसालोंवाली साग-सब्जी रुचती नहीं थी । घर की मालकिन मेरे लिए कुछ बनावे तो क्या बनाये ? सवेरे तो ओटमील (जई का आटा) की लपसी बनती । उससे पेट कुछ भर जाता । पर दोपहर और शाम को मैं हमेशा भूखा रहता । मित्र मुझे रोज माँस खाने के लिए समझाते । मैं प्रतिज्ञा की आड़ लेकर चुप हो जाता । उनकी दलीलों का जवाब देना मेरे बस का न था । दोपहर को सिर्फ रोटी , पत्तो-वाली एक भाजी और मुरब्बे पर गुजर करता था । यही खुराक शाम के लिए भी थी । मैं देखता था कि रोटी के तो दो-तीन टुकड़े लेने की रीत हैं । इससे अधिक माँगते शरम लगती थी । मुझे डटकर खाने की आदत थी । भूख तेज थी और खूब खुराक चाहती थी । दोपहर या शाम को दूध नहीं मिलता था । मेरी यह हालत देखकर एक दिन मित्र चिढ़ गये और बोले , 'अगर तुम मेरे सगे भाई होतो तो मैं तुम्हें निश्चय ही वापस भेज देता। यहाँ की हालत जाने बिना निरक्षर माता के सामने की गयी प्रतिज्ञा का मूल्य ही क्या ? वह तो प्रतिज्ञा ही नहीं कहीं जा सकती । मै तुमसे कहता हूँ कि कानून इसे प्रतिज्ञा नहीं मानेगा । ऐसी प्रतिज्ञा से चिपटे रहना तो निरा अंधविश्वास कहा जायेगा । और ऐसे अंधविश्वास में फंसे रहकर तुम इस देश से अपने देश कुछ भी न ले जा सकोगे । तुम तो कहते हो कि तुमने माँस खाया हैं । तुम्हें वह अच्छा भी लगा हैं । जहाँ खाने की जरुरत नहीं थी वहाँ खाया, और जहाँ खाने की खास जरुरत हैं वहाँ छोड़ा । यह कैसा आश्चर्य हैं ।'
मैं टस से मस नहीं हुआ ।
ऐसी बहस रोज हुआ करती । मेरे पास छत्तीस रोगों को मिटाने वाल एक नन्ना ही था । मित्र मुझे जितना समझाते मेरी ढृढ़ता उतनी ही बढ़ती जाती । मैं रोज भगवान से रक्षा की याचना करता और मुझे रक्षा मिलती । मै नहीं जानता था कि ईश्वर कौन हैं । पर रम्भा की दी हुई श्रद्धा अपना काम कर रही थी ।
एक दिन मित्र मे मेरे सामने बेन्थम का ग्रंथ पढ़ना शुरु किया । उपयोगितावादवाला अध्याय पढ़ा । मैं घबराया । भाषा ऊँची थी । मैं मुश्किल से समझ पाता । उन्होंने उसका विवेचन किया । मैने उत्तर दिया , 'मैं आपसे माफी चाहता हूँ । मैं ऐसी सूक्षम बाते समझ नहीं पाता । मैं स्वीकार करता हूँ कि माँस खाना चाहिये , पर मैं अपनी प्रतिज्ञा का बन्धन तोड़ नहीं सकता । उसके लिए मैं कोई दलील नहीं दे सकता । मुझे विश्वास हैं कि दलील में मैं आपको कभी जीत नहीं सकता । पर मूर्ख समझकर अथवा हठी समझकर इस मामले मे मुझे छोड़ दीजिये । मैं आपके प्रेम को समझता हूँ । आपको मैं अपना परम हितैषी मानता हूँ । मैं यह भी देख रहा हूँ कि आपको दुःख होता हैं , इसी से आप इतना आग्रह करते हैं । पर मैं लाचार हूँ । मेरी प्रतिज्ञा नहीं टूट सकती ।'
मित्र देखते रहे । उन्होने पुस्तक बन्द कर दी । 'बस, अब मैं बहस नहीं करुगा,' यह कहकर वे चुप हो गया । मैं खुश हुआ । इसके हाद उन्होंने बहस करना छोड़ दिया ।
पर मेरे बारे मे उनकी चिन्ता दूर न हुई । वे बीडी पीते थे, शराब पीते थे । लेकिन मुझसे कभी नहीं कहा कि इनमें से एक का भी मैं सेवन करुँ । उलटे, वे मुझे मना ही करते रहे । उन्हे चिन्ता यह थी कि माँसाहार के अभाव में मैं कमजोर हो जाऊँगा । और इंग्लैंड में निश्तन्ततापूर्वक रह न सकूँगा ।
इस तरह एक महीने तक मैने नौसिखुए के रुप में उम्मीदवारी की । मित्र का घर रिचमन्ड में था, इसलिए मैं हफ्ते में एक या दो बार ही लंदन जा पाता था । डॉक्टर मेहता और भाई दलपतराम शुक्ल ने सोचा कि अब मुझे किसी कुटुम्ब में रहना चाहिये । भाई शुक्ल ने केन्सिग्टन में एक एंग्लोइण्डिन का घर खोज निकाला । घर की मालकीन एक विधवा थी । उससे मैं माँस-त्याग की बात कही । बुढिया ने मेरी सार-संभाल की जिम्मेदारी ली । मैं वहाँ रहने लगा ।
वहाँ भी मुझे रोज भूखा रहना पड़ता था । मैने घर से मिठाई वगैरा खाने की चीजे मंगाई थी, पर वे अभी आयी नही थी । सब कुछ फीका लगता था । बुढ़िया हमेशा पूछती, पर वह करे क्या ? तिस पर मैं अभी तक शरमाता था । बुढ़िया के दो लड़कियाँ थी । वे आग्रह करके थोड़ी अधिक रोटी देती । पर वह बेचारी क्या जाने कि उनकी समूची रोटी खाने पर ही मेरी पेट भर सकता था ?
लेकिन अब मैं होशियारी पकड़ने लगा था । अभी पढ़ाई शुरु नहीं हुई थी । मुश्किल से समाचार पत्र पढ़ने लगा था । यह भाई शुक्ल का प्रताप हैं । हिन्दुस्तान में मैंने समाचार पत्र कभी पढ़े नहीं थे । पर बराबर पढ़ते रहने के अभ्यास से उन्हें पढ़ते रहने का शौक पैदा कर सका था । 'डेली न्यूज़', 'डेली टेलीग्राफ' और 'पेलमेल गजेट' इन पत्रों को सरमय निगाह से देख जाता था । पर शुरु-शुरु मे तो इसमें मुश्किल से एक घंटा खर्च होता होगा ।
मैने घुमना शुरु किया । मुझे निरामिष अर्थात अन्नाहार देने वाले भोजनगृह की खोज करनी थी । घर की मालकिन मे भी कहा था कि खास लंदन में ऐसे गृह मौजूद हैं। मैं रोज दस-बारह मील चलता था । किसी मामूली से भोजनगृह में जाकर पेटभर रोटी खा लेता था । पर उससे संतोष न होता था । इस तरह भटकता हुआ एक दिन मैं फैरिंग्डन स्ट्रीट पहुँचा और वहाँ 'वेजिटेरियन रेस्टराँ' (अन्नाहारी भोजनालय ) का नाम पढा । मुझे वह आनन्द हुआ , जो बालको को मनचाही चीज मिलने से होती हैं । हर्ष-विभोर होकर अन्दर घुसने से पहले मैने दरवाजे के पास शीशेवाली खिड़की में बिक्री की पुस्तकें देखी । उनमे मुझे सॉल्ट की 'अन्नाहार की हिमायत' नामक पुस्तक दीखी । एक शिलिंग में मैने वह पुस्तक खरीद ली और फिर भोजन करने बैठा । विलायत में आने के बाद यहाँ पहली बार भरपेट भोजन मिला । ईश्वर नें मेरी भूख मिटायी ।
सॉल्ट की पुस्तक पढ़ी । मुझ पर उसकी अच्छी छाप पड़ी । इस पुस्तक को पढ़ने के दिन से मैं स्वेच्छापूर्वक, अन्नाहार में विश्वास करने लगा । माता के निकट की गयी प्रतिज्ञा अब मुझे आनन्द देने लगी । और जिस तरह अब तक मैं यह मानता था कि सब माँसाहारी बने तो अच्छा हो , और पहले केवल सत्य की रक्षा के लिए और बाद में प्रतिज्ञा-पालन के लिए ही मैं माँस-त्याग करता था और भविष्य में किसी दिन स्वयं आजादी से , प्रकट रुप में, माँस खाकर दूसरों को खानेवालों के दल में सम्मिलित करने की अमंग रखता था, इसी तरह अब स्वयं अन्नाहारी रहकर दूसरों को वैसा बनाने का लोभ मुझ मे जागा ।

'सभ्य' पोशाक में
अन्नाहार पर मेरी श्रद्धा दिन पर दिन बढडती गयी । सॉल्ट की पुस्तक मे आहार के विषय में अधिक पुस्तकें पढ़ने की मेरी जिज्ञासा को तीव्र बना दिया । जितनी पुस्तकें पढ़ने मुझे मिलीं, मैने खरीद ली और पढ़ डाली । उनमें हावर्ड विलियम्स की 'आहार-नीति' नामक पुस्तक में अलग-अलग युगों के ज्ञानियों, अवतारों और पैगम्बरो के आहार का और आहार-विषयक उनके विचारों का वर्णन किया गया हैं । पाइथागोरस, ईसा मसीह इत्यादि को उसनें केवल अन्नाहारी सिद्ध करने का प्रयत्न किया हैं । डॉक्टर मिसेस एना किंग्सफर्ड की 'उत्तम आहार की रीति' नामक पुस्तक भी आकर्षक थी । साथ ही, डॉ. एलिन्सन के आरोग्य-विषयक लेखों ने भी इसमें अच्छी मदद की । वे दवा के बदले आहार के हेरफर से ही रोगी को नीरोग करने की पद्धति का समर्थन करते थे । डॉ. एलिन्सन स्वयं अन्नाहारी थे और बीमारों केवल अन्नाहार की सलाह देते थे । इन पुस्तकों के अध्ययन का परिणाम यह हुआ कि मेरे जीवन में आहार-विषयक प्रयोगों ने महत्त्व का स्थान प्राप्त कर लिया । आरम्भ में इन प्रयोगों में आरोग्य की दृष्टि मुख्य थी । बाद में धार्मिक दृष्टि सर्वोपरी बनी ।
इस बीच मेरे मित्र को तो मेरी चिन्ता बनी ही रही । उन्होंने प्रेमवश यह माना कि अगर मैं माँस नहीं खाऊँगा तो कमजोर हो जाऊँगा । यही नही, बल्कि मैं बेवकूफ बना रहूँगा क्योकि अंग्रेजों के समाज में घुलमिल ही न सकूँगा । वे जानते थे कि मैं अन्नाहार-विषयक पुस्तकें पढ़ता रहता हूँ । उन्हें डर था कि इन पुस्तकों के पढ़ने से में भ्रमित चित्त बन जाऊँगा, प्रयोगों में मेरा जीवन व्यर्थ चला जायेगा । मुझे जो करना हैं, उसे मैं भूल जाऊँगा और 'पोथी-पंडित' बन बैठूँगा । इस विचार से उन्होंने मुझे सुधारने का एक आखिरी प्रयत्न किया । उन्होंने मुझे नाटक दिखाने के लिए न्योता । वहाँ जाने से पहले मुझे उनके साथ हॉबर्न भोजन-गृह में भोजन करना था । मेरी दृष्टि में यह गृह एक महल था । विक्टोरिया होटल छोड़ने के बाद ऐसे गृह में जाने का मेरा यह पहला अनुभव था । विक्टोरिया होटल का अनुभव तो निकम्मा था , क्योंकि ऐसा मानना होगा कि वहाँ मैं बेहोशी की हालत में था । सैकड़ों के बीच हम दो मित्र एक मेज के सामने बैठे । मित्र ने पहली प्लेट मंगाई । वह 'सूप' की थी । मैं परेशान हुआ । मित्र से क्या पूछता? मैंने परोसने वाले को अपने पास बुलाया ।
मित्र समझ गये । चिढ़ कर पूछा, 'क्या हैं?'
मैंने धीरे से संकोचपूर्वक कहा, 'मैं जानना चाहता हूँ कि इसमे माँस हैं या नहीँ ।'
'ऐसे गृह में यह जंगलीपन नहीं चल सकता। अगर तुम्हें अब भी किच-किच करनी हो तो तुम बाहर जाकर किसी छोटे से भोजन-गृह में खा लो और बाहर मेरी राह देखो ।'
मैं इस प्रस्ताव से खुश होकर उठा और दूसरे भोजनलय की खोज में निकला । पास ही एक अन्नाहारवाला भोजन-गृह था । पर वह तो बन्द हो चुका था । मुझे समझ न पड़ा कि अब क्या करना चाहियें । मैं भूखा रहा । हम नाटक देखने गये । मित्र ने उक्त घटना के बारे में एक शब्द भी मुँह से न निकाला। मेरे पास तो कहने को था ही क्या ?
लेकिन यह हमारे बीच का अन्तिम मित्र-युद्ध था । न हमारा सम्बन्ध टूटा, न उसमें कटुता आयी । उनके सारे प्रयत्नों के मूल मे रहें प्रेम को मैं पहचान सका था । इस कारण विचार और आचार की भिन्नता रहते हुए भी उनके प्रति मेरा आदर बढ़ गया । पर मैने सोचा कि मुझे उनका डर दूर करना चाहियें । मैंने निश्चय किया कि मैं जंगली नहीं रहूँगा । सभ्यता के लक्षण ग्रहण करूँगा और दुसरे प्रकार के समाज में समरस होने योग्य बनकर अपनी अन्नाहार की अपनी विचित्रता को छिपा लूँगा।
इस 'सभ्यता' को सीखने के लिए अपनी सामर्थ्य से परे का और छिछला रास्ता पकड़ा ।
विलायती होने पर भी बम्बई के कटे-सिले कपड़े अच्छे अंग्रेज समाज मे शोभा नहीं देगे , इस विचार से मैंने 'आर्मी और नेवी' के स्टोर में कपड़े सिलवाये । उन्नीस शिलिंग की (उस जमाने के लिहाज से तो यह कीमत बहुत ही कही जायेगी ) 'चिमनी' टोपी सिर पर पहनी । इतने से संतोष न हुआ तो बॉँण्ड स्ट्रीट , जहाँ शौकिन लोगों के कपड़े सिलते थे , दस पौण्ड पर बती रख कर शाम की पोशाक सिलवायी । भोले और बादशाही दिलवाले बड़े भाई से मैने दोनो जेबों में लटकने लायक सोने की एक बढिया चेन मँगवायी और वह मिल भी गयी । बँधी-बँधाई टाई पहनना शिष्टाचार में शुमार न था, इसलिए टाई बाँधने की कला हस्तगत की । देश में आइना हजामत के दिन ही देखने को मिलता था , पर यहाँ तो बड़े आइने के सामने खड़े रहकर ठीक से टाई बाँधने में और बालो मे सीधी माँग निकालने में रोज लगभग दस मिनट तो बरबाद होते ही थे । बाल मुलायम नहीं थे, इसलिए उन्हें अच्छी तरह मुडें हुए रखने के लिए ब्रश (झाडू ही समझिये! ) के साथ रोज लड़ाई चलती थी । और टोपी पहनते तथा निकालने समय हाथ तो मानो माँग को सहेजने के लिए सिर पर पहुँच ही जाता था । और बीच-बीच में, समाज में बैठे-बैठे , माँग पर हाथ फिराकर बालों को व्यवस्थित रखने की एक और सभ्य क्रिया बराबर ही रहती थी ।
पर इतनी टीमटाप ही काफी न थी । अकेली सभ्य पोशाक से सभ्य थोड़े ही बना जा सकता था ? मैने सभ्यता के दूसरे कई बाहरी गुण भी जान लिये थे और मैं उन्हें सीखना चाहता था । सभ्य पुरुष को नाचना जानना चाहिये । उसे फ्रेच अच्छी तरह जान लेनी चाहिये , क्योंकि फ्रेंच इंग्लैंड के पड़ोसी फ्रांस की भाषा थी, और यूरोप की राष्ट्रभाषा भी थी । और, मुझे यूरोप में घुमने की इच्छा थी । इसके अलावा, सभ्य पुरुष को लच्छेदार भाषण करना भी आना चाहिये । मैने नृत्य सिखने का निश्चय किया । एक सत्र में भरती हुआ । एक सत्र के करीब तीन पौण्ड जमा किये । कोई तीन हफ्तों में करीब छह सबक सीखे होगे । पैर ठीक से तालबद्ध पड़ते न थे । पियानो बजता था, पर क्या कह रहा हैं, कुछ समझ में न आता था । 'एक, दो, एक' चलता , पर उनके बीच का अन्तर तो बाजा ही बताता था , जो मेरे लिए अगम्य था । तो अब क्या किया जाये ? अब तो बाबाजी की बिल्ली वाला किस्सा हुआ । चुहों को भगाने के लिए बिल्ली, बिल्ली के लिए गाय, यों बाबाजी का परिवार बढ़ा, उसी तरह मेरे लोभ का परिवार बढ़ा । वायोलिन बजाना सीख लूँ तो सुर और ताल का ख्याल हो जाय । तीन पौण्ड वायोलिन खरीदने मे गंवाये और कुछ उसकी शिक्षा के लिए भी दिये । भाषण करना सीखने के लिए एक तीसरे शिक्षक का घर खोजा । उन्हें भी एक गिन्नी तो भेट की ही । बेल 'स्टैण्डर्ड एलोक्युशनिस्ट' पुस्तक खरीदी । पिट का एक भाषण शुरु किया ।
इन बेल साहब ने मेरे कान ने बेल (घंटी) बजायी । मैं जागा ।
मुझे कौन इंग्लैण्ड में जीवन बिताना हैं ? लच्छेदार भाषण करना सीखकर मैं क्या करुँगा ? नाच-नाचकर मैं सभ्य कैसे बनूँगा ? वायोलिन तो देश में भी सीखा जा सकता हैं । मै तो विद्यार्थी हूँ । मुझें विद्या-धन बढ़ाना चाहिये । मुझे अपने पेशे से सम्बन्ध रखने वाली तैयारी करनी चाहिये । मै अपने सदाचार से सभ्य समझा जाऊँ तो ठीक हैं, नही तो मुझे यह लोभ छोड़ना चाहिये ।
इन विचारो की घुन में मैंने उपर्युक्त आशय के उद्गारोवाला पत्र भाषण-शिक्षक को भेज दिया । उनसे मैने दो या तीन पाठ ही पढे थे । नृत्य-शिक्षिका को भी ऐसा ही पत्र लिखा । वायोलिन शिक्षिका के घर वायोलिन लेकर पहुँचा। उन्हें जिस दाम भी बिके, बेच डालने की इजाजत दे दी । उनके साथ कुछ मित्रता का सा सम्बन्ध हो गया था । इस कारण मैने उनसे अपने मोह की चर्चा की । नाच आदि के जंजाल में से निकल जाने की मेरी बात उन्होंने पसन्द की ।
सभ्य बनने की मेरी यह सनक लगभग तीन महीने तक चली होगी । पोशाक की टीपटाप तो बरसों चली । पर अब मैं विद्धार्थी बना ।

फेरफार
कोई यह न माने कि नाच आदि के मेरे प्रयोग उस समय की मेरी स्वच्छन्दता के सूचक हैं । पाठको ने देखा होगा कि उनमे कुछ समझदारी थी । मोह के इस समय में भी मैं एक हद तक सावधान था । पाई-पाई का हिसाब रखता था । खर्च का अंदाज रखता था । मैंने हर महीने पन्द्रह पौण्ड से अधिक खर्च न करने का निश्चिय किया था । मोटर में आने-जाने का अथवा डाक का खर्च भी हमेशा लिखता था । और सोने से पहले हमेशा अपनी रोकड़ मिला लेता था । यह आदत अंत तक बनी रही । और मैं जानता हूँ कि इससे सार्वजनिक जीवन में मेरे हाथो लाखों रुपयों का जो उलट-फेर हुआ हैं, उसमें मैं उचित किफायतशारी से काम ले सका हूँ । और आगे मेरी देख-रेख में जितने भी आन्दोलन चले, उनमे मैंने कभी कर्ज नहीं किया, बल्कि हरएक में कुछ न कुछ बचत ही रही । यदि हरएक नवयुवक उसे मिलने वाले थोड़े रुपयों का भी हिसाब खबरदारी के साथ रखेगा, तो उसका लाभ वह भी उसी तरह अनुभव करेगा , जिस तरह भविष्य में मैने और जनता ने किया ।
अपनी रहन-सहन पर मेरा कुछ अंकुश था , इस कारण मैं देख सका कि मुझे कितना खर्च करना चाहिये । अब मैने खर्च आधा कर डालने का निश्चय किया । हिसाब जाँचने से पता चला कि गाडी-भाड़े का मेरा खर्च काफी होता था । फिर कुटुम्ब में रहने से हर हफ्ते कुछ खर्च तो होता ही था । किसी दिन कुटुम्ब के लोगो को बाहर भोजन के लिए ले जाने का शिष्टाचार बरतना जरुरी था । कभी उनके साथ दावत मे जाना पड़ता , तो गाड़ी-भाड़े का खर्च लग ही जाता था । कोई लड़की साथ हो तो उसका खर्च चुकाना जरुरी हो जाता था । जब बाहर जाता, तो खाने के लिए घर न पहुँच पाता । वहाँ तो पैसे पहले से ही चुकाये रहते और बाहर खाने के पैसा और चुकाने पड़ते । मैने देखा कि इस तरह के खर्चों से बचा जा सकता हैं । महज शरम की वजह से होने वाले खर्चों से बचने की बात भी समझ मे आयी ।
अब तक मैं कुटुम्बों मे रहता था । उसके बदले अपना ही कमरा लेकर, और यह भी तय किया कि काम के अनुसार औऱ अनुभव प्राप्त करने के लिए अलग-अलग मुहल्लों मे घर बदलता रहूँगा । घर मैंने ऐसी जगह पसमद किये कि जहाँ से काम की जगह पर आधे घंटे मे पैदल पहुँचा जा सके और गाड़ी-भाड़ा बचे । इससे पहले जहाँ जाना होता वहाँ की गाड़ी-भाड़ा हमेशा चुकाना पड़ता और घूमने के लिए अलग से समय निकालना पड़ता था । अब काम पर जाते हुए ही घूमने की व्यवस्था जम गयी, और इस कारण मैं रोज आठृदस मील घूम लेता था । खासकर इस एक आदत के कारण मैं विलायत में शायद ही कभी बीमार पड़ा होऊँगा । मेरा शरीर काफी कस गया । कुटुम्ब में रहना छोड़कर मैने दो कमरे किराये पर लिये । एक सोने के लिए और दूसरा बैठक के रुप में । यह फेरफार की दूसरी मंजिल कहीं जा सकती हैं । तीसरा फेरफार अभी होना शेष था ।
इस तरह आधा खर्च बचा । लेकिन समय का क्या हो ? मैं जानता था कि बारिस्टरी की परीक्षा के लिए बहत पढ़ना जरुरी नहीं हैं, इसलिए मुझे बेफिकरी थी । पर मेरी कच्ची अंग्रेजी मुझे दुःख देती थी । लेली साहब के शब्द 'तुम बी.ए. हो जाओ, फिर आना' मुझे चुभते थे । मैंने सोचा मुझे बारिस्टर बनने के अलावा कुछ और भी पढ़ना चाहिये । ऑक्सफर्ड केम्ब्रिज की पढाई का पता लगाया । कई मित्रो से मिला । मैने देखा कि वहाँ जाने से खर्च बहुत बढ़ जायेगा और पढ़ाई लम्बी चलेगी । मैं तीन साल से अधिक रह नहीं सकता था । किसी मित्र ने कहा, 'अगर तुम्हें कोई कठिन परीक्षा ही देनी हो, तो लंदन की मैट्रिक्युलेशन पास कर लो । उसमे मेहनत काफी करनी पड़ेगी और साधारण ज्ञान बढ़ेगा । खर्च विलकुल नहीं बढ़ेगा ।' मुझे यह सुझाव अच्छा लगा । पर परीक्षा के विषय देख कर मैं चौका । लेटिन और दूसरी एक भाषा अनिवार्य थी । लेटिन कैसे सीखी जाय ? पर मित्र ने सुझाया, 'वकील के लिए लेटिन बहुत उपयोगी हैं । लेटिन जाननेवाले के कानूनी किताबे समझना आसान हो जाता हैं , और रोमन लॉ की परीक्षा में एक प्रश्नपत्र केवल लेटिन भाषा में ही होता हैं । इसके सिवा लेटिन जानने से अंग्रेजी भाषा पर प्रभुत्व बढ़ता हैं । ' इन सब दलीलों का मुझ पर असर हुआ । मैने सोचा , मुश्किल हो चाहे न हो, पर लेटिन तो सीख ही लेनी हैं। फ्रेंच की शुरु की हुई पढ़ाई को पूरा करना हैं । इसलिए निश्चय किया कि दूसरी भाषा फ्रेंच हो । मैट्रिक्युलेशन का एक प्राईवेट वर्ग चलता था । हर छठे महीने परीक्षा होती थी । मेरे पास मुश्किल से पाँच महीने का समय था । यह काम मेरे बूते के बाहर था । परिणाम यह हुआ कि सभ्य बनने की जगह मैं अत्यन्त उद्यमी विद्यार्थी बन गया । समय-पत्रक बनाया । एक-एक मिनट का उपयोग किया । पर मेरी बुद्धि या समरण-शक्ति ऐसी नहीं थी कि दूसरे विषयों के अतिरिक्त लेटिन और फ्रेंच की तैयारी कर सकूँ । परीक्षा में बैठा । लेटिन मे फेल हुआ , पर हिम्मत नहीं हारा । लेटिन मे रुचि हो गयी थी । मैने सोचा कि दूसरी बार परीक्षा में बैठने से फ्रेच अधिक अच्छी हो जायेगी और विज्ञान मे नया विषय ले लूंगा । प्रयोगों के अभाव में रसायनशास्त्र मुझे रुचता ही न था । यद्यपि अब देखता हूँ कि उसमे खूब रस आना चाहिये था । देश में तो यह विषय सीखा ही था, इसलिए लंदन की मैट्रिक के लिए भी पहली बार इसी को पसन्द किया था । इस बार 'प्रकाश और उष्णता' का विषय लिया । यह विषय आसान माना जाता था । मुझे भी आसान प्रतित हुआ ।
पुनः परीक्षा देने की तैयारी के साथ ही रहन-सबन में अधिक सादगी लाने का प्रयत्न शुरु किया । मैने अनुभव किया कि अभी मेरे कुटुम्ब की गरीबी के अनुरुप मेरी जीवन सादा नहीं बना हैं । भाई की तंगी के और उनकी उदारता के विचारों ने मुझे व्याकुल बना दिया । जो लोग हर महीने 15 पौण्ड या 8 पौण्ड खर्च करते थे, उन्हें तो छात्रवृत्ति मिलती थी । मैं देखता था कि मुझसे भी अधिक सादगी से रहने वाले लोग हैं । मैं ऐसे गरीब विद्यार्थियों के संपर्क में ठीक-ठीक आया था । एक विद्यार्थी लंदन की गरीब बस्ती में हफ्ते के दो शिलिंग देकर एक कोठरी मे रहता था , और लोकार्ट की कोको की सस्ती दुकान मे दो पेनी का कोको और रोटी खाकर गुजारा करती था । उससे स्पर्धा करने की तो मेरी शक्ति नहीं थी, पर अनुभव किया कि मैं एक कमरे मे रह सकता हूँ और आधी रसोई अपने हाथ से भी बना सकता हूँ । इस प्रकार मैं हर पर महीने चार या पाँच पौण्ड में अपना निर्वाह कर सकता हूँ । सादी रहन-सहन पर पुस्तके भी पढ़ चीका था । दो कमरे छोड दिये और हफ्तें के आठ शिलिंग पर एक कमरा किराये पर लिया । एक अंगीठी खरीदी और सुबह का भोजन हाथ से बनना शुरु किया ।
इसमें मुश्किल से बीस मिनट खर्च होते थे । ओटमील की लपसी बनाने और कोको ले लिए पानी उबालने में कितना समय लगता ? दोपहर का भोजन बाहर कर लेता और शाम को फिर कोको बनाकर रोटी के साथ खा लेता । इस तरह मैं एक से सवा शिलिंग के अन्दर रोज के अपने भोजन की व्यवस्था करना सीख गया । यह मेरा अधिक से अधिक पढाई का समय था । जीवन सादा बन जाने से समय अधिक बचा । दूसरी बार परीक्षा में बैठा और पास हुआ ।
पर पाठक यह न माने कि सादगी से मेरा जीवन नीरस बना होगा । उलटे, इन फेरफारों के कारण मेरी आन्तरिक और बाह्य स्थिति के बीच एकता पैदा हूई , कौटुम्बिक स्थिति के साथ मेरी रहन-सहन का मेल बैठा , जीवन अधिक सारमय बना और मेरे आत्मानन्द का पार न रहा ।

खुराक के प्रयोग
जैसे-जैसे मैं जीवन की गहराई मे उतरता गया , वैसे-वैसे मुझे बाहर और भीतर के आचरण में फेरफार करने की जरुरत मालूम होती गयी । जिस गति से रहन-सहन और खर्च में फेरफार हुए, उसी गति से अथवा उससे भी अधिक वेग से मैंने खुराक में फेरफार करना शुरु किया । मैंने देखा कि अन्नाहार विषयक अंग्रेजी की पुस्तकों में लेखकों ने बहुत सूक्ष्मता से विचार किया हैं । उन्होंने धार्मिक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक और वैद्यक दृष्टि से अन्नाहार की छानबीन की थी । नैतिक दृष्टि से उन्होंने यह सोचा कि मनुष्य को पशु-पक्षियों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ हैं , वह उन्हें मारकर खाने के लिए नहीं, बल्कि उनकी रक्षा के लिए हैं ; अथवा जिस प्रकार मनुष्य एक-दूसरे का उपयोग करते हैं, पर एकृदूसरे को खाते नहीं , उसी प्रकार पशु-पक्षियों भी उपयोग के लिए हैं, खाने के लिए नहीं । और, उन्होने देखा कि खाना भोग के लिए नहीं, बल्कि जीने के लिए ही हैं । इस कारण कईयों मे आहार में माँस का ही बल्कि अंड़ो और दूध का भी त्याग सुझाया और किया । विज्ञान की दृष्टि से और मनुष्य की शरीर-रचना को देखकर कई लोग इस परिणाम पर पहुँचे कि मनुष्य को भोजन पकाने की आवश्यकता ही नहीं हैं, वह वनपक्व (झाड़ पर कुदरती तौर पर पके हुए फल) फल ही खाने के लिए पैदा किया गया हैं। दूध उसे केवल माता का ही पीना चाहिये । दाँत निकलने के बाद उसको चबा सकने योग्य खुराक ही लेती चाहिये । वैद्यक दृष्टि से उन्होंने मिर्च-मसालों का त्याग सुझाया और व्यावहारिक अथवा आर्थिक दृष्टि से उन्होंने बताया कि कम-से-कम खर्चवाली खुराक अन्नाहार ही हो सकती हैं । मुझ पर इन चारो दृष्टियो का प्रभाव पड़ा और अन्नाहार देने वाले भोजन-गृह में मैं चारो दृष्टिवाले व्यक्तियों से मिलने लगा । विलायत में इनका एक मण्डल था और एक साप्ताहिक भी निकलता था । मैं साप्ताहिक का ग्राहक बना और मण्डल का सदस्य । कुछ ही समय में मुझे उसकी कमेटी में ले लिया गया ष यहाँ मेरा परिचय ऐसे लोगो से हुआ, जो अन्नाहारियों में स्तम्भ रुप माने जाते थे । मैं प्रयोगों में व्यस्त हो गया ।
घर से मिठाई-मसाले वगैरा जो मँगाये थे, सो लेने बन्द कर दिये और मन ने दूसरा मोड़ पकड़ा । इस कारण मसालों का प्रेम कम पड़ गया, और जो सब्जी रिचमंड में मसाले के अभाव में बेस्वाद मालूम होती थी, बह अब सिर्फ उबाली हूई स्वादिष्ट लगने लगी । ऐसे अनेक अनुभवों से मैने सीखा कि स्वाद का सच्चा स्थान जीभ नहीं , पर मन हैं ।
आर्थिक दृष्टि तो मेरे सामने थी ही । उन दिनों एक पंथ ऐसा था, जो चाय-कॉफी को हानिकारक मानता था और कोको का समर्थन करता था । मैं यह समझ चुका था कि केवल उन्हीं वस्तुओ का सेवन करना योग्य है , जो शरीर-व्यापार के लिए आवश्यक है । इस कारण मुख्यतः मैने चाय और कॉफी का त्याग किया और कोको को अपनाया ।
भोजन-गृह के दो विभाग थे । एक मे जितने पदार्थ खाओ उतने पैसे देने होते थे । इनमें एक बार में शिलिंग-दो शिलिंग को भी खर्च हो जाता था । इस विभाग में अच्छी स्थिति के लोग जाते थे । दूसरे विभाग में छह पेनी में तीन पदार्थ और डबल-रोटी का एक टुकड़ा मिलता था । जिन दिनों मैने खूब किफायतशारी शुरु की थी , उन दिनों मैं अक्सर छह पेनीवाले विभाग में जाता था ।
ऊपर के प्रयोगो के साथ उप-प्रयोग तो बहुत हुए । कभी स्टार्च वाला आहार छोड़ा , कभी सिर्फ डबल रोटी और फल पर ही रहा , कभी पनीर , दूध और अंड़ो का ही सेवन किया ।
यह आखिरी प्रयोग उल्लेखनीय है । यह पन्द्रह दिन भी नही चला । स्टार्च-रहित आहार का समर्थन करने वालों ने अंडो की खूब स्तुति की थी और यह सिद्ध किया था कि अंडे माँस नहीं हैं । यह तो स्पष्ट है कि अंडे खाने से कियी जीवित प्राणी को दुःख नहीं पहुँचता । इस दलील के भुलावे में आकर मैने माताजी के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा के रहते भी अंडे खाये, पर मेरा वह मोह क्षणिक था । प्रतिज्ञा का नया अर्थ करने का मुझे कोई अधिकार न था । अर्थ तो प्रतिज्ञा करानेवाले का ही माना जा सकता था । माँस न खाने की प्रतिज्ञा कराने वाली माता को अंडो का तो ख्याल हो ही नहीं सकता था, इसे मैं जानता था । इस कारण प्रतिज्ञा के रहस्य का बोध होते ही मैंने अंडे छोड़े और प्रयोग भी छोड़ा ।
यह एक सूक्ष्म रहस्य है और ध्यान में रखने योग्य हैं । विलायत में मैंने माँस की तीन व्याख्यायें पढ़ी थी । एक के अनुसार माँस का अर्थ पशु-पक्षी का माँस था । अतएव ये व्याख्याकरा उनका त्याग करते थे, पर मच्छी खाते थे, अंडे तो खाते ही थे । दूसरी व्याख्या के अनुसार साधारण मनुष्य जिसे जीव के रुप में जानता हैं , उसका त्याग किया जाता था । इसके अनुसार मच्छी त्याज्य थी, पर अंडे ग्राह्य थे । तीसरी व्याख्या में साधारणतया जितने भी जीव माने जाते हैं , उनके और उनसे उत्पन्न होने वाले पदार्थों के त्याग की बात थी । इस व्याख्या के अनुसार अंड़ो का और दूध का भी त्याग बन्धनकारक था । यदि मैं इनमें से पहली व्याख्या को मानता , तो मच्छी भी खा सकता था । पर मै समझ गया कि मेरे लिए तो माताजी की व्याख्या ही बन्धनकारक हैं । अतएव यदि मुझे उनके सम्मुख ली गयी प्रतिज्ञा का पालन करना हो तो अंडे खाने ही न चाहिये । इस कारण मैने अंड़ो का त्याग किया । पर मेरे लिए यह बहुत कठिन हो गया, क्योंकि बारीकी से पूछताछ करने पर पता चला कि अन्नाहार भोजन-गृह में भी अंडोवाली बहुत चीजें बनती थी । तात्पर्य यह कि वहाँ भी भाग्यवश मुझे तब कर परोसनेवालों से पूछताछ करनी पड़ी थी, जब तक कि मैं अच्छा जानकार न हो गया, क्योकि कई तरह के 'पुडिंग' में और कई तरह के 'केक' में तो अंडे होते ही थे । इस कारण एक तरह से तो मैं जंजाल से छूटा , क्योकि थोड़ी और बिल्कुल सादी चीजें ही ले सकता था । दूसरी तरफ थोड़ा आघात भी लगा, क्योकि जीभ से लगी हुई कई चीजों का मुझे त्याग करना पड़ा था । पर वह आघात क्षणिक था । प्रतिज्ञा-पालन का स्वच्छ, सूक्ष्म और स्थायी स्वाद उस क्षणिक स्वाद की तुलना में मुझे अधिक प्रिय लगा ।
पर सच्ची परीक्षा तो आगे होने वाली थी, और वह एक दूसरे व्रत के निमित्त से । जिसे राम रखे, उसे कौन चखे ?
इस अध्याय को समाप्त करने से पहले प्रतिज्ञा के अर्थ के विषय में कुछ कहना जरुरी हैं । मेरी प्रतिज्ञा माता के सम्मुख किया हुआ एक करार था । दुनिया में बहुत से झगडे केवल करार के अर्थ के कारण उत्पन्न होते हैं । इकरारनामा कितनी ही स्पष्ट भाषा में क्यो न लिखा जाये, तो भी भाषाशास्त्री 'राई का पर्वत' कर देंगे । इसमे सभ्य-असभ्य का भेद नहीं रहता । स्वार्थ सबको अन्धा बना देता हैं । राजा से रंक तक सभी लोग करारों के खुद को अच्छे लगने वाले अर्थ करके दुनिया को, खुद को और भगवान को धोखा देते हैं । इस प्रकार पक्षकार लोग जिस शब्द अथवा वाक्य का अपने अनुकूल पड़नेवाला अर्थ करते हैं, न्यायशास्त्र में उसे द्वि-अर्थी मध्यपद कहा गया हैं । सुवर्ण न्याय तो यह हैं कि विपक्ष ने हमारी बात का जो अर्थ माना हो , वही सच माना जाये ; हमारे मन में जो हो वह खोटा अथवा अधूरा हैं । और ऐसा ही दूसरा सुवर्ण न्याय यह है कि जहाँ दो अर्थ हो सकते हैं वहीँ दुर्बल पक्ष जो अर्थ करे, वही सच माना चाहिये । इन दो सुवर्ण मार्गों का त्याग होने से ही अक्सर झगडे होते है और अधर्म चलता हैं । और इस अन्याय की जड़ असत्य हैं । जिसे सत्य के ही मार्ग पर जाना हो , उसे सुवर्ण मार्ग सहज भाव से मिल जाता हैं । उसे शास्त्र नहीं खोजने पड़ते । माता ने 'माँस' शब्द का जो अर्थ माना औऱ जिसे मैने उस समय समझा, वही मेरे लिए सच्चा था । वह अर्थ नहीं जिसे मैं अपने अधिक अनुभव से या अपनी विद्वत्त के मद मे सीखा-समझा था ।
इस समय तक के मेरे प्रयोग आर्थिक और आरोग्य की दृष्टि से होते थे । विलायत मे उन्होंने धार्मिक स्वरुप ग्रहण नही किया था । धार्मिक दृष्टि से मेरे कठिन प्रयोग दक्षिण अफ्रीका में हुए , जिन की छानबीन आगे करनी होगी । पर कहा जा सकता हैं कि उनका बीज विलायत में बोया गया था ।
जो आदमी नया धर्म स्वीकार करता हैं, उसमे उस धर्म के प्रचार का जोश उस धर्म में जन्मे हुए लोगों की अपेक्षा अधिक पाया जाता है । विलायत में तो अन्नाहार एक नया धर्म ही था । औऱ मेरे लिए भी वह वैसा ही माना जायेगा , क्योकि बुद्धि से तो मैं माँसाहार का हिमायती बनने के बाद ही विलायत गया था । अन्नाहार की नीति को ज्ञानपूर्वक तो मैंने विलायत में ही अपनाया था । अतएव मेरी स्थिति नये धर्म में प्रवेश करने-जैसी बन गयी थी , और मुझमें नवधर्मी का जोश आ गया था । इस कारण इस समय मैं जिस बस्ती में रहता था , उसमें मैने अन्नाहारी मण्डल की स्थापना करने का निश्चय किया । इस बस्ती का नाम बेजवॉटर था । इसमे सर एडविन आर्नल्ड रहते थे । मैने उन्हे उपसभापति बनने को निमंत्रित किया । वे बने । डॉ. ओल्डफील्ड सभापति बने । मैं मंत्री बना । यह संस्था कुछ समय तक तो अच्छी चली , पर कुछ महीनों के बाद इसका अन्त हो गया , क्योकि मैने अमुक मुद्दत के बाद अपने रिवाज के अनुसार वह वस्ती छोड़ दी । पर इस छोटे औऱ अल्प अवधि के अनुभव से मुझे संस्थाओं का निर्माण करने औऱ उन्हें चलाने का कुछ अनुभव प्राप्त हुआ ।

लज्जाशीलता मेरी ढाल
अन्नाहारी मण्डल की कार्यकारिणी में मुझे चुन तो लिया गया और उसमें मैं हर बार हाजिर भी रहता था , पर बोलने के लिए जीभ खुलती ही न थी । डॉ. औल्डफील्ड मुझसे कहते, 'मेरे साथ तो तुम काफी बाक कर लेते हो, पर समिति की बैठक में कभी जीभ ही नहीं खोलते हो । तुम्हे तो नर-मक्खी की उपमा दी जानी चाहिये ।' मैं इस विनोद को समझ गया । मक्खियाँ निरन्तर उद्यमी रहती हो, पर नर-मक्खियाँ बराबर खाती-पीती रहती हैं और काम बिल्कुल नहीं करती । यह बड़ी अजीब बात थी कि जब दूसरे सब समिति में अपनी-अपनी सम्मति प्रकट करते , तब मैं गूंगा बनकर ही बैठा रहता था। मुझे बोलने की इच्छा न होती हो सो बात नहीं, पर बोलता क्या ? मुझे सब सदस्य अपने से अधिक जानकार मालूम होते थे । फिर किसी विषय में बोलने की जरुरत होती और मैं कुछ कहने की हिम्मत करने जाता, इतने में दूसरा विषय छिड़ जाता ।
यह चीज बहुत समय तक चली । इस बीच समिति में एक गंभीर विषय उपस्थित हुआ । उसमे भाग न लेना मुझे अन्याय होने देने जैसा लगा । गूंगे की तरह मत देकर शान्त रहने में नामर्दगी मालूम हुई । 'टेम्स आयर्न वर्कस' के मालिक हिल्स मण्डल के सभापति थे । कहा जा सकता हैं कि मण्डल उनके पैसे से चल रहा था । समिति के कई सदस्य तो उनके आसरे निभ रहे था । समिति में डॉ. एलिन्सन भी थे । उन दिनों सन्तानोत्पत्ति पर कृमित्र उपायो से अंकुश रखने का आन्दोलन चल रहा था । डॉ. एलिन्सन उन उपायो के समर्थक थे और मजदूरो में उनका प्रचार करते थे । मि. हिल्स को ये उपाय नीति-नाशक प्रतीत हुए । उनके विचार में अन्नाहारी मण्डल केवल आहार के ही सुधार के लिए नही था, बल्कि वह एक नीति-वर्धक मण्डल भी था । इसलिए उनकी राय थी कि डॉ. एलिन्सन के समान धातक विचार रखने वाले लोग उस मण्डल में नहीं रहने चाहिये । इसलिए डॉ. एलिन्सन को समिति से हटाने का एक प्रस्ताव आया । मैं इस चर्चा में दिलचस्पी रखता था । डॉ. एलिन्सन के कृमित्र उपायों-सम्बन्धी विचार मुझे भयंकर मालूम हुए थे , उनके खिलाफ मि. हिल्स के विरोध को मैं शुद्ध नीति मानता था । मेरे मन में उनके प्रति बड़ा आदर था । उनकी उदारता के प्रति भी आदर भाव था । पर अन्नाहार-संवर्धक मण्डल में से शुद्ध नीति के नियमों को ने मानने वाले का उसकी अश्रद्धा के कारण बहिस्कार किया जाये , इसमें मुझे साफ अन्याय दिखायी दिया । मेरा ख्याल था कि अन्नाहारी मण्डल के स्त्री-पुरुष सम्बन्ध विषयक मि. हिल्स के विचार उनके अपने विचार थे । मण्डल के सिद्धान्त के साथ उनका कोई सम्बन्ध न था । मण्डल का उद्देश्य केवल अन्नाहार का प्रचार करना था । दूसरी नीति का नहीं । इसलिए मेरी राय लह थी कि दूसरी अनेक नीतियों का अनादर करनेवाले के लिए भी अन्नाहार मण्डल में स्थान हो सकता हैं ।
समिति में मेरे विचार के दूसरे सदस्य भी थे । पर मुझे अपने विचार व्यक्त करने का जोश चढा था । उन्हें कैसे व्यक्त किया जाये, यह एक महान प्रश्न बन गया । मुझमे बोलने की हिम्मत नहीं थी , इसलिए मैने अपने विचार लिखकर सभापति के सम्मुख रखने का निश्चय किया । मैं अपना लेख ले गया । जैसा कि मुझे याद है, मैं उसे पढ़ जाने की हिम्मत भी नही कर सका । सभापति ने उसे दूसरे सदस्य से पढवाया । डॉ. एलिन्सन का पक्ष हार गया । अतएव इस प्रकार के अपने इस पहले युद्ध में मैं पराजित पक्ष में रहा । पर चूकिं मैं उस पक्ष को सच्चा मानता था , इसलिए मुझे सम्पूर्ण संतोष रहा । मेरा कुछ ऐसा ख्याल है कि उसके बाद मैने समिति से इस्तिफा दे दिया था ।
मेरी लज्जाशीलता विलायत में अन्त तक बनी रही । किसी से मिलने जाने पर भी, जहाँ पाँच-सात मनुष्यो की मण्डली इक्ट्ठा होती वहाँ मैं गूंगा बन जाता था ।
एक बार मैं वेंटनर गया था । वहाँ मजमुदार भी थे । वहाँ के एक अन्नाहार घर में हम दोनो रहते थे । 'एथिक्स ऑफ डायेट' ते लेखक इसी बन्दरगाह में रहते थे । हम उनसे मिले । वहाँ अन्नाहार को प्रोत्साहन देने के लिए एक सभा की गयी । उसमे हम दोनो को बोलने का निमंत्रण मिला । दोनो ने उसे स्वीकार किया । मैने जान लिया था कि लिखा हुआ भाषण पढने में कोई दोष नहीं माना जाता । मैं देखता था कि अपने विचारों को सिलसिले से और संक्षेप में प्रकट करने के लिए बहुत से लोग लिखा हुआ पढ़ते थे । मैने अपना भाषण लिख लिया । बोलने की हिम्मत नहीं थी । जब मैं पढ़ने के लिए खड़ा हुआ, तो पढ़ न सका । आँखो के सामने अंधेरा छा गया और मेरे हाथ-पैर काँपने लगे । मेरा भाषण मुश्किल से फुलस्केप का एक पृष्ठ रहा होगा । मजमुदार ने उसे पढ़कर सुनाया । मजमुदार का भाषण तो अच्छा हुआ । श्रोतागण उनकी बातो का स्वागत तालियों की गड़गडाहट से करते थे । मैं शरमाया और बोलने की अपनी असमर्थता के लिए दुःखी हुआ ।
विलायत में सार्वजनिक रुप से बोलने का अंतिम प्रयत्न करना पड़ा था । विलायत छोड़ने से पहले मैने अन्नाहारी मित्रों को हॉबर्न भोजन-गृह में भोज के लिए निमंत्रित किया था । मैने सोचा कि अन्नाहारी भोजन-गृहों में तो अन्नाहार मिलता ही हैं , पर जिस भोजन-गृह में माँसाहार बनता हो वहाँ अन्नाहार का प्रवेश हो तो अच्छा । यह विचार करके मैने इस गृह के व्यवस्थापक के साथ विशेष प्रबन्ध करके वहाँ भोज दिया । यह नया प्रयोग अन्नाहारियों में प्रसिद्धि पा गया । पर मेरी तो फजीहत ही हुई । भोजमात्र भोग के लिए ही होते हैं । पर पश्चिम में इनका विकास एक कला के रुप में किया गया हैं । भोज के समय विशेष आडम्बर की व्यवस्था रहती है । बाजे बजते हैं, भाषण किये जाते हैं । इस छोटे से भोज में भी यह सारा आडम्बर था ही । मेरे भाषण का समय आया । मैं खड़ा हुआ । खूब सोचकर बोलने की तैयारी की थी । मैने कुछ ही वाक्यो की रचना की थी, पर पहले वाक्य से आगे न बढ़ सका । एडीसन के विषय में पढ़ते हुए मैंने उसके लज्जाशील स्वभाव के बारे में पढ़ा था । लोकसभा हाइस ऑफ कॉमन्स) के उसके पहले भाषण के बारे में यह कहा जाता है कि उसने 'मेरी धारणा है', 'मेरी धारणा है', 'मेरी धारणा है', यो तीन वार कहां, पर बाद में आगे न बढ़ सका । जिस अंग्रेजी शब्द का अर्थ 'धारणा हैं', उसका अर्थ 'गर्भ धारण करना' भी हैं । इसलिए जब एडीसन आगे न बढ़ सका तो लोकसभा का एक मखसरा सदस्य कह बैठा कि 'इन सज्जन ने तीन बार गर्भ धारण किया, पर ये कुछ पैदा तो कर ही सके !' मैने यह कहानी सोच रखी थी और एक छोटा-सा विनोदपूर्ण भाषण करने का मेरा इरादा था । इसलिए मैने अपने भाषण का आरंभ इस कहानी से किया, पर गाड़ी वही अटक गयी । सोचा हुआ सब भूल गया और विनोदपूर्ण तथा गूढ़ार्थभरा भाषण करने की कोशिश मे मैं स्वयं विनोद का पात्र बन गया । अन्त मे 'सज्जनो, आपने मेरा निमंत्रण स्वीकार किया, इसके लिए मैं आपका आभार मानता हूँ ,' इतना कहकर मुझे बैठ जाना पड़ा !
मै कह सकता हूँ मेरा यह शरमीला स्वभाव दक्षिण अफ्रीका पहुँचने पर ही दूर हुआ । बिल्कुल दूर हो गया , ऐसा तो आज भी नही कहा जा सकता । बोलते समय सोचना तो पड़ता ही हैं । नये समाज के सामने बोलते हुए मैं सकुचाता हूँ । बोलने से बचा जा सके , तो जरुर बच जाता हूँ । और यह स्थिति तो आज नहीं हैं कि मित्र-मण्डली के बीच बैठा होने पर कोई खास बात कर ही सकूँ अथवा बात करने की इच्छा होती हो । अपने इस शरमीले स्वभाव के कारण मेरी फजीहत तो हुई पर मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ; बल्कि अब तो मैं देख सकता हूँ कि मुझे फायदा हुआ है। पहले बोलने का यह संकोच मेरे लिए दुःखकर था, अब वह सुखकर हो गया हैं । एक बड़ा फायदा तो यह हुआ कि मैं शब्दों का मितव्यय करना सीखा ।
मुझे अपने विचारो पर काबू रखने की आदत सहज ही पड़ गयी । मैं अपने आपको यह प्रमाण-पत्र दे सकता हूँ कि मेरी जबान या कलम से बिना तौले शायद ही कोई शब्द कभी निकलता हैं । याद नहीं पड़ती कि अपने किसी भाषण या लेख के किसी अंश के लिए मुझे कभी शरमाना या पछताना पड़ा हो । मैं अनेक संकटों से बच गया हूँ और मुझे अपना बहुत-सा समय बचा लेने का लाभ मिला हैं ।
अनुभव ने मुझे यह भी सिखाया है कि सत्य के प्रत्येक पुजारी के लिए मौन का सेवन इष्ट हैं । मनुष्य जाने-अनजाने भी प्रायः अतिशयोक्ति करता हैं , अथवा जो कहने योग्य हैं उसे छिपाता हैं, या दूसरे ढंग से कहता हैं । ऐसे संकटों से बचने के लिए भी मितभाषी होना आवश्यक हैं । कम बोलने वाला बिना विचारे नहीं बोलेगा ; वह अपने प्रत्येक शब्द को तौलेगा । अक्सर मनुष्य बोलने के लिए अधीर हो जाता हैं । 'मै भी बोलना चाहता हूँ,' इस आशय की चिट्ठी किस सभापति को नही मिलती होगी ? फिस उसे जो समय दिया जाता हैं वह उसके लिए पर्याप्त नहीं होता । वह अधिक बोलने देने की माँग करता है और अन्त में बिना अनुमति के भी बोलता रहता हैं । इन सब लोगो के बोलने से दुनिया को लाभ होता हैं, ऐसा क्वचित ही पाया जाता हैं । पर उतने समय की बरबादी तो स्पष्ट ही देखी जा सकती हैं । इसलिए यद्यपि आरम्भ मे मुझे अपनी लज्जाशीलता दुःख देती थी , लेकिन आज उसके स्मरण से मुझे आनन्द होता हैं । यह लज्जाशीलता मेरी ढ़ाल थी । उससे मुझे परिपक्व बनने का लाभ मिला । सत्य की अपनी पूजा में मुझे उससे सहायता मिली ।

असत्यरुपी विष
  साल पहने विलायत जाने वाले हिन्दुस्तानी विद्यार्थी आज की तुलना में कम थे । स्वयं विवाहित होने पर भी अपने को कुँआरा बताने का उनमें रिवाज-सा पड़ गया था । उस देश में स्कूल या कॉलेज में पढ़ने वाले कोई विद्यार्थी विवाहित नहीं होते । विवाहित के लिए विद्यार्थी जीवन नहीं होता । हमारे यहाँ तो प्राचीन काल में विद्यार्थी ब्रह्मचारी ही कहलाता था । बाल-विवाह की प्रथा तो इस जमाने में ही पड़ी हैं । कह सकते हैं कि विलायत में बाल-विवाह जैसी कोई हैं ही नहीं । इसलिए भारत के युवकों को यह स्वीकार करते हुए शरम मालूम होती हैं कि वे विवाहित हैं । विवाह की बात छिपाने का दूसरा एक कारण यह हैं कि अगर विवाह प्रकट हो जाये , तो जिस कुटुम्ब में रहते हैं उसकी जवान लड़कियों के साथ घूमने-फिरने और हँसी-मजाक करने का मौका नहीं मिलता । यह हँसी-मजाक अधिकतर निर्दोष होता हैं । माता-पिता इस तरह की मित्रता पसन्द भी करते हैं । वहाँ युवक और युवतियों के बीच ऐसे सहवास की आवश्यकता भी मानी जाती हैं , क्योंकि वहाँ तो प्रत्येक युवक को अपनी सहधर्मचारिणी स्वयं खोज लेनी होती हैं । अतएव विलायत में जो सम्बन्ध स्वाभाविक माना जाता हैं , उसे हिन्दुस्तान का नवयुवक विलायत पहुँचते ही जोडना शुरु कर दे तो परिणाम भयंकर ही होगा । कई बार ऐसे परिणाम प्रकट भी हुए हैं । फिर भी हमारे नवयुवक इस मोहिनी माया में फँस पड़े थे । हमारे नवयुवको ने उस योहब्वत के लिए असत्याचरण पसन्द किया , जो अंग्रेजो की दृष्टि से कितनी ही निर्दोष होते हुए भी हमारे लिए त्याज्य हैं । इस फंदे में मैं भी फँस गया । पाँच-छह साल से विवाहित और एक लड़के का बाप होते हुए भी मैंने अपने आपको कुँआरा बताने में संकोच नहीं किया ! पर इसका स्वाद मैने थोड़ा ही चखा । मेरे शरमीले स्वभाव ने , मेरे मौन ने मुझे बहुत कुछ बचा लिया । जब मैं बोल ही न पाता था, तो कौन लड़की ठाली बैठी थी जो मुझसे बात करती ? मेरे साथ घूमने के लिए भी शायद ही कोई लड़की निकलती ।
मैं जितना शरमीला था उतना ही डरपोक भी था । वेंटनर में जिस परिवार में मैं रहता था , वैसे परिवार में घर की बेटी हो तो वह , सभ्यता के विचार से ही सही, मेरे समान विदेशी को घूमने ले जाती । सभ्यता के इस विचार से प्रेरित होकर इस घर की मालकिन की लड़की मुझे वेंटनर के आसपास की सुन्दर पहाड़ियों पर ले गयी । वैसे मेरी कुछ धीमी नहीं थी, पर उसकी चाल मुझ से तेज थी । इसलिए मुझे उसके पीछे घसिटना पड़ा । वह तो रास्तेभर बातो के फव्वारे उड़ाती चली, जब कि मेरे मुँह से कभी 'हाँ' या कभी 'ना' की आवाज भर निकती थी । बहुत हुआ तो 'कितना सुन्दर हैं!' कह देता । इससे ज्यादा बोल न पाता । वह तो हवा में उड़ती जाती और मै यह सोचता रहता कि घर कब पहुँचूंगा । फिर भी यह करने की हिम्मत न पड़ती कि 'चलो, अब लौट चले ।' इतने में हम एक पहाड़ की चोटी पर जा खड़े हुए । पर अप उतरा कैसे जाये ? अपने ऊँची एजीवाले बूटो के बावजूद बीस-पचीस साल की वह रमणी बिजली की तरह ऊपर से नीचे उतर गयी , जब कि मैं शरमिंदा होकर अभी यही सोच रहा था कि ढाल कैसे उतरा जाये ! वह नीचें खड़ी हँसती हैं, मुझे हिम्मत बँधाती हैं, ऊपर आकर हाथ का सहारा देकर नीचे ले जाने को कहती हैं ! मैं इतना पस्तहिम्मत तो कैसे बनता ? मुश्किल से पैर जमाता हुआ , कहीं कुछ बैठता हुआ, मैं नीचे उतरा । उसने मजाक मे 'शा..बा..श!' कहकर मुझ शरमाये हुए को और अधिक शरमिंदा किया । इस तरह के मजाक से मुझे शरमिंदा करने का उसे हक था ।
लेकिन हर जगह मैं इस तरह कैसे बच पाता ? ईश्वर मेरे अन्दर से असत्य की विष निकालना चाहता था । वेंटनर की तरह ब्राइटन भी समुद्र किनारे हवाखोरी का मुकाम हैं । एक बार मैं वहाँ गया था । जिस होटल में मैं ठहरा था, उसमे साधारण खुशहाल स्थिति की एक विधवा आकर टीकी थी । यह मेरा पहले वर्ष का समय था , वेंटनर के पहले का । यहाँ सूची में खाने की सभी चीजों के नाम फ्रेंच भाषा में लिखे थे । मैं उन्हें समझता न था । मैं बुढियावाली मेंज पर ही बैठा था । बुढिया ने देखा कि मैं अजनबी हूँ और कुछ परेशानी में भी हूँ । उसने बातचीत शुरु की, 'तुम अजनबी से मालूम होते हो । किसी परेशानी में भी हो । अभी तक कुछ खाने को भी नहीं मँगाया हैं ।'
मैं भोजन के पदार्थों की सूची पढ़ रहा था और परोसने वाले से पूछने की तैयारी कर रहा था । इसलिए मैने उस भद्र महिला को धन्यवाद दिया और कहा , 'यह सूची मेरी समझ में नही आ रही हैं । मैं अन्नाहारी हूँ । इसलिए यह जानना जरुरी हैं कि इनमे से कौन सी चीजे निर्दोष हैं ।'
उस महिला ने कहा , 'तो लो, मैं तुम्हारी मदद करती हूँ और सूची समझा देती हूँ । तुम्हारे खाने लायक चीजें मैं तुम्हें बता सकूँगी ।'
मैने धन्यवाद पूर्वक उसकी सहायता स्वीकार की । यहाँ से हमारा जो सम्बन्ध जुड़ा सो मेरे विलायत मे रहने तक और उसके बाद भी बरसों तक बना रहा। उसने मुझे लन्दन का अपना पता दिया और हर रविवार को अपने घर भोजन के लिए आने को न्योता । वह दूसरे अवसरों पर भी मुझे अपने यहाँ बुलाती थी, प्रयत्न करके मेरा शरमीलापन छुड़ाती थी , जवान स्त्रियों से जान-पहचान कराती थी और उनसे बातचीक करने को ललचाती थी । उसके घर रहने वाली एर स्त्री के साथ बहुत बाते करवाती थी। कभी कभी हमें अकेला भी छोड़ देती थी ।
आरम्भ में मुझे यह सब बहुत कठिन लगा । बात करना सूझता न था । विनोद भी क्या किया जाये ! पर वह बुढ़िया मुझे प्रविण बनाती रही । मैं तालीम पाने लगा । हर रविवार की राह देखने लगा । उस स्त्री के साथ बाते करना भी मुझे अच्छा लगने लगा ।
बुढिया भी मुझे लुभाती जाती । उसे इस संग में रस आने लगा । उसने तो हम दोनो का हित ही चाहा होगा ।
अब मैं क्या करूँ ? सोचा, 'क्या ही अच्छा होता, अगर मैं इस भद्र महिला से अपने विवाह की बात कह देता ? उस दशा में क्या वह चाहती कि किसी के साथ मेरा ब्याह हो ? अब भी देर नहीं हुई हैं। मै सच कह दूँ, तो अधिक संकट से बच जाउँगा ।' यह सोचकर मैंने उसे एक पत्र लिखा । अपनी स्मृति के आधार पर नीचे उसका सार देता हूँ:
'जब से हम ब्राइटन मे मिले, आप मुझ पर प्रेम रखती रही हैं । माँ जिस तरह अपने बटे की चिन्ती रखती हैं, उसी तरह आप मेरी चिन्ता रखती हैं । आप तो यह भी मानती हैं कि मुझे ब्याह करना चाहिये , और इसी ख्याल से आप मेरा परिचय युवतियों से कराती हैं । ऐसे सम्बन्ध के अधिक आगे बढने से पहले ही मुझे आपसे यह कहना चाहिये कि मैं आपके प्रेम के योग्य नहीँ हूँ । मैं आपके घर आने लगा तभी मुझे आप से यह कह देना चाहिये था कि मैं विवाहित हूँ । मैं जानता हूँ कि हिन्दुस्तान के जो विद्यार्थी विवाहित होते हैं , वे इस देश में अपने ब्याह की बात प्रकट नहीं करते । इससे मैने भी उस रिवाज का अनुकरण किया । पर अब मैं देखता हूँ कि मुझे अपने विवाह की बात बिल्कुल छिपानी नहीं चाहियें थी । मुझे साथ मे यह भी कह देना चाहिये कि मेरा ब्याह बचपन मे हुआ हैं और मेरे एक लड़का भी हैं । आपसे इस बात को छिपाने का अब मुझे बहुत दुःख हैं, पर अब भगवान मे सच कह देने की हिम्मत दी हैं , इससे मुझे आनन्द होता हैं । क्या आप मुझे माफ करेंगी ? जिस बहन के साथ आपने मेरा परिचय कराया हैं , उसके साथ मैने कोई अनुचित छूट नही ली , इसका विश्वास मैं आपको दिलाता हूँ । मुझे इस बात का पूरा-पूरा ख्याल हैं कि मुझे ऐसी छूट नहीं लेनी चाहिये । पर आप तो स्वाभाविक रुप से यह चाहती हैं कि किसी के साथ मेरा सम्बन्ध जुड़ जाये । आपके मन में यह बात आगे न बढे, इसके लिए भी मुझे आपके सामने सत्य प्रकट कर देना चाहिये ।
'यदि इस पत्र के मिलने पर आप मुझे अपने यहाँ आने के लिए अयोग्य समझेंगी, तो मुझे जरा भी बुरा नहीं लगेगा । आपकी ममता के लिए तो मैं आपका चिरऋणी बन चुका हूँ । मुझे स्वीकार करना चाहिये कि अगर आप मेरा त्याग न करेंगी तो मुझे खुशी होगी । यदि अब भी मुझे अपने घर आने योग्य मानेगी तो उसे मैं आपके प्रेम की एक नयी निशानी समझूँगा और उस प्रेम के योग्य बनने का सदा प्रयत्न करता रहूँगा ।
पाठक समझ ले कि यह पत्र मैने क्षणभर में नहीं लिख डाला था । न जाने कितने मसविदे तैयार किये होगें । पर यह पत्र भेज कर मैने अपने सिर का एक बड़ा बोझ उतार डाला । लगभग लौटती डाक से मुझे उस विधवा बहन का उत्तर मिला । उसने लिखा था :
'खुले दिल से लिखा तुम्हार पत्र मिला । हम दोनो खुश हुई और खूब हँसी । तुमने जिस असत्य से काम लिया, वह तो क्षमा के योग्य ही हैं । पर तुमने अपनी सही स्थिति प्रकट कर दी यह अच्छा ही हुआ । मेरा न्योता कायम हैं । अगले रविवार को हम अवश्य तुम्हारी राह देखेंगी, तुम्हारे बाल-विवाह की बाते सुनेंगी और तुम्हार मजाक उड़ाने का आनन्द भी लूटेंगी । विश्वास रखो कि हमारी मित्रता तो जैसी थी वैसी ही रहेगी ।'
इस प्रकार मैने अपने अन्दर घुसे हुए असत्य के विष को बाहर निकाल दिया और फिर अपने विवाह आदि की बात करने में मुझे कही घबराहट नहीं हुई ।

धर्मों का परिचय
विलायत मे रहते हुए मुझे कोई एक साल हुआ होगा । इस बीच दो थियॉसॉफिस्ट मित्रो से मेरी पहचान हुई । दोनो सगे भाई थे और अविवाहित थे । उन्होंमे मुझसे गीता की चर्चा की । वे एडविन आर्नल्ड की गीता का अनुवाद पढ रहे थे । पर उन्होंने मुझे अपने साथ संस्कृत में गीता पढ़ने के लिए न्योता । मैं शरमाया, क्योकि मैने गीता संस्कृत में या मातृभाषा में पढ़ी ही नहीं थी । मुझे उनसे कहना पड़ा कि मैंने गीता पढ़ी ही नहीं पर मैं उसे आपके साथ पढ़ने के लिए तैयार हूँ । संस्कृत का मेरा अभ्यास भी नहीं के बराबर ही हैं । मैं उसे इतना ही समझ पाऊँगा कि अनुवाद मे कोई गलत अर्थ होगा तो उसे सुधार सकूँगा । इस प्रकार मैने उन भाईयों के साथ गीता पढ़ना शुरु किया । दूसरे अध्याय के अंतिम श्लोको मे से
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते । संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोत्तभिजायते ।।
क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ।।
(विषयो का चिन्तन करने वाले पुरुष को उन विषयों में आसक्ति पैदा होती हैं । फिर आसक्ति से कामना पैदा होती हैं और कामना से क्रोध पैदा होता हैं , क्रोध से मूढ़ता पैदा होती हैं, मूढ़ता से स्मृति-लोप होता हैं और स्मृति-लोप से बुद्धि नष्ट होती हैं । और जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती हैं उसका खुद का नाश हो जाता हैं ।)
इन श्लोको को मेरे मन पर गहरा असर पड़ा । उनकी भनक मेरे कान में गूंजती ही रही । उस समय मुझे लगा कि भगवद् गीता अमूल्य ग्रंथ हैं । यह मान्यता धीरे-धीरे बढ़ती गयी, और आज तत्त्वज्ञान के लिए मैं उसे सर्वोत्तम ग्रन्थ मानता हूँ । निराशा के समय में इस ग्रंथ ने मेरी अमूल्य सहायता की हैं । इसके लगभग सभी अंग्रेजी अनुवाद पढ़ गया हूँ । पर एडविन आर्नल्ड का अनुवाद मुझे श्रेष्ठ प्रतीत होता हैं । उसमे मूल ग्रंथ के भाव की रक्षा की गयी हैं, फिर भी वह ग्रंथ अनुवाद जैसा नहीं लगता । इस बार मैने भगवद् गीता का अध्ययन किया , ऐसा तो मैं कह ही नहीं सकता । मेरे नित्यपाठ का ग्रंथ तो वह कई वर्षो के बाद बना । इन्हीं भाईयों ने मुझे सुझाया कि मैं आर्नल्ड का बुद्ध-चरित पढ़ूँ । उस समय तक तो मुझे सर एडविन आर्नल्ड के गीता के अनुवाद का ही पता था । मैने बुद्ध-चरित भगवद् गीता से भी अधिक रस-पूर्वक पढ़ा । पुस्तक हाथ में लेने के बाद समाप्त करके ही छोड़ सका ।
एक बार ये भाई मुझे ब्लैवट्स्की लॉज में भी ले गये । वहाँ मैडम ब्लैवट्स्की के और मिसेज एनी बेसेंट के दर्शन कराये । मिसेज बेसेंट हाल ही थियॉसॉफिकल सोसाइटी मे दाखिल हुई थी । इससे समाचार पत्रों मे इस सम्बन्ध की जो चर्चा चलती थी, उसे मैं दिलचस्पी के साथ पढ़ा करता था । इन भाईयों ने मुझे सोसायटी में दाखिल होने का भी सुझाव दिया । मैने नम्रता पूर्वक इनकार किया और कहा , 'मेरा धर्मज्ञान नही के बराबर हैं , इसलिए मैं किसी भी पंथ में सम्मिलित होना नहीं चाहता ।' मेरा कुछ ख्याल हैं कि इन्हीं भाईयों के कहने से मैने मैडम ब्लैवट्स्की की पुस्तक 'की टु थियॉसॉफी' पढ़ी थी । उससे हिन्दू धर्म की पुस्तके पढने की इच्छा पैदा हुई और पादरियों के मुँह से सुना हुआ यह ख्याल दिल से निकल गया कि हिन्दू धर्म अन्धविश्वासो से भरा हुआ हैं ।
इन्ही दिनों एक अन्नाहारी छात्रावास में मुझे मैचेस्टर के एक ईसाई सज्जन मिले । उन्होने मुझसे ईसाई धर्म की चर्चा की । मैने उन्हें राजकोट का अपना संस्मरण सुनाया । वे सुनकर दुःखी हुए । उन्होंने कहा , 'मै स्वयं अन्नाहारी हूँ । मद्यपान भी नही करता । यह सच है कि बहुत से ईसाई माँस खाते हैं और शराब पीते हैं ; पर इस धर्म में दोनो मे से एक भी वस्तु का सेवन करना कर्तव्य रुप नही हैं । मेरी सलाह है कि आप बाइबल पढ़े ।' मैने उनकी सलाह मान ली । उन्ही ने बाइबल खरीद कर मुझे दी । मेरी कुछ ऐसा ख्याल हैं कि वे भाई खुद ही बाइबल बेचते थे । उन्होंने नक्शों और विष-सूची आदि से युक्त बाइबल मुझे बेची । मैने उसे पढ़ना शुरु किया , पर मैं 'पुराना इकरार' (ओल्ड टेस्टामेंट) तो पढ़ ही न सका । 'जेनेसिस' (सृष्टि रचना) के प्रकरण के बाद तो पढते समय मुझे नींद ही आ जाती । मुझे याद हैं कि 'मैने बाइबल पढ़ी हैं' यह कह सकने के लिए मैने बिना रस के और बिना समझे दूसरे प्रकरण बहुत कष्ट पूर्वक पढ़े । 'नम्बर्स' नामक प्रकरण पढ़ते पढ़ते मेरा जी उचट गया था ।
पर जब 'नये इकरार' (न्यू टेस्टामेंट ) पर आया , तो कुछ और हू असर हुआ । ईसा के 'गिरि प्रवचन' का मुझ पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा । उसे मैने हृदय में बसा लिया । बुद्धि मे गीता के साथ उसकी तुलना की । 'जो तुझसे कुर्ता माँगे उसे अंगरखा भी दे', 'जो तेरे दाहिने गाल पर तमाचा मारे, बायाँ गाल भी उसके सामने कर दे' - यह पढकर मुझे अपार आनन्द हुआ । शामल भट् ( यह छप्पय प्रकरण 10 के अन्त मे दिया गया हैं । शामळ भट् 18वीं सदी के गुजराती के एक प्रसिद्ध कवि हैं । छप्पय पर उनका जो प्रभुत्व था, उसके कारण गुजरात में यह कहावत प्रचलित हो गयी हैं कि 'छप्पय तो शामळ के') के छप्पय की याद आ गयी । मेरे बालमन ने गीता, आर्नल्ड कृत बुद्ध चरित और ईसा के वचनो का एकीकरण किया । मन को यह बात जँच गयी कि त्याग में धर्म हैं ।
इस वाचन से दूसरे धर्माचार्यो की जीवनियाँ पढ़ने की इच्छा हुई । किसी मित्र ने कार्लाइल की 'विभूतियाँ और विभूति पूजा' (हीरोज़ एंड हीरो-वर्शिप) पढने की सलाह दी । उसमे से मैने पैगम्बर की (हजरत मुहम्मद) का प्रकरण पढ़ा और मुझे उनकी महानता , वीरता और तपश्चर्या का पता चला ।
मैं धर्म के इस परिचय से आगे न बढ़ सका । अपनी परीक्षा की पुस्तकों के अलावा दूसरा कुछ पढ़ने की फुरसत मै नहीं निकाल सका । पर मेरे मन ने यह निश्चय किया कि मुझे धर्म पुस्तके पढ़नी चाहिये और सब धर्मों का परिचय प्राप्त कर लेना चाहिये ।
नास्तिकता के बारे मे भी कुछ जाने बिना काम कैसे चलता ? ब्रेडला का नाम तो सब हिन्दुस्तानी जानते ही थे । ब्रेडला नास्तिक माने जाते थे । इसलिए उनके सम्बन्ध में एक पुस्तक पढ़ी । नाम मुझे याद नही रहा । मुझ पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा । मैं नास्तिकता रुपी सहारे के रेगिस्तान को पार कर गया । मिसेज बेसेंट की ख्याति तो उस समय भी खूब थी । वे नास्तिक से आस्तिक बनी हैं । इस चीज ने भी मुझे नास्तिकतावाद के प्रति उदासीन बना दिया । मैने मिसेज बेसेंट की 'मैं थियॉसॉफिस्ट कैसे बनी ?' पुस्तिका पढ़ ली थी । उन्हीं दिनों ब्रेडला का देहान्त हो गया । वोकिंग में उनका अंतिम संस्कार किया गया था । मै भी वहाँ पहुँच गया था । मेरा ख्याल हैं कि वहाँ रहने वाले हिन्दुस्तानियों में से तो एक भी बाकी नही बचा होगा । कई पादरी भी उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट करने के लिए आये थे । वापस लौटते हुए हम सब एक जगह रेलगाडी की राह देखते खड़े थे । वहाँ इस दल में से किसी पहलवान नास्तिक ने इन पादरियों में से एक के साथ जिरह शुरु की,
'क्यो साहब , आप कहते है न कि ईश्वर हैं ?'
उन भद्र पुरुष ने धीमी आवाज में उत्तर दिया , 'हाँ, मैं कहता तो हूँ ।'
वह हँसा और मानो पादरी को मात दे रहा हो इस ढंग से बोला, 'अच्छा, आप यह तो स्वीकार करते हैं न कि पृथ्वी की परिधि 28000 मील हैं ?'
'अवश्य'
'तो कहिये, ईश्वर का कद कितना होगा और वह कहाँ रहता होगा ?'
'अगर हम समझे तो वह हम दोनो के हृदय मे वास करता हैं ।'
'बच्चो को फुसलाइये , बच्चों को', यह कहकर उस योद्धा ने आसपास खड़े हुए हम लोगो की तरफ विजय दृष्टि से देखा । पादरी मौन रहे । इस संवाद के कारण नास्कितावाद के प्रति मेरी अरुचि और बढ गयी ।

'निर्बल के बलराम'
धर्मशास्त्र का और दुनिया के धर्मो का कुछ भान तो मुझे हुआ , पर उतना ज्ञान मनुष्य को बचाने के लिए काफी नही होता । संकट के समय जो चीज मनुष्य को बचाती हैं, उसका उसे उस समय न तो भान होता हैं , न ज्ञान । जब नास्तिक बचता हैं तो वह कहता हैं कि मैं संयोग से बच गया । ऐसे समय आस्तिक कहेगा कि मुझे ईश्वर ने बचाया । परिणाम के बाद वह यह अनुमान कर लेता हैं कि धर्मों के अभ्यास से संयम से ईश्वर उसके हृदय मे प्रकट होता हैं । उसे ऐसा अनुमान करने का अधिकार हैं । पर बचते समय वह नहीं जानता कि उसे उसका संयम बचाता हैं या कौन बचाता हैं । जो अपनी संयम शक्ति का अभिमान रखता हैं , उसके संयम को धूल मिलते किसने नहीं जाना हैं ? ऐसे समय शास्त्र ज्ञान तो छूछे जैसा प्रतित होता हैं ।
बौद्धिक धर्मज्ञान के इस मिथ्यापन का अनुभव मुझे विलायत मे हुआ । पहले भी मैं ऐसे संकटों में से बच गया था , पर उनका पृथक्करण नहीं किया जा सकता । कहना होगा कि उस समय मेरी उमर बहुत छोटी थी ।
पर अब तो मेरी उमर 20 साल की थी । मैं गृहस्थाश्रम का ठीक-ठीक अनुभव ले चुका था ।
बहुत करके मेरे विलायत निवास के आखिरी साल मे, यानि 1890 के साल मे पोर्टस्मथ मे अन्नाहारियो का एक सम्मेलन हुआ था ।ष उसमे मुझे और एक हिन्दुस्तानी मित्र को निमंत्रित किया गया था । हम दोनो वहाँ पहुँचे । हमें एक महिला के घर ठहराया गया था । पोर्टस्मथ खलासियो का बन्दरगाह कहलाता हैं । वहाँ बहुतेरे घर दुराचारिणी स्त्रियों के होते हैं । वे स्त्रियाँ वेश्या नहीं होती, न निर्दोष ही होती हैं । ऐसे ही एक घर में हम लोग टिके थे । इसका यह मतलब नहीं कि स्वागत समिति ने जान-बूझकर ऐसे घर ठीक किये थे । पर पोर्टस्मथ जैसे बन्दरगाह में जब यात्रियों को ठहराने के लिए डेरों की तलाश होती है , तो यह कहना मुश्किल ही हो जाता हैं कि कौन से घर अच्छे है और कौन से बुरे ।
रात पड़ी । हम सभा से घर लौटे । भोजन के बाद ताश खेलने बैठे । विलायत में अच्छे भले घरों में भी इस तरह गृहिणी मेहमानो के साथ ताश खेलने बैठती है । ताश खेलते हुए निर्दोष विनोद तो सब कौई करते हैं । लेकिन यहाँ तो बीभत्स विनोद शुरु हुआ । मैं नहीं जानता था कि मेरे साथी इस मे निपुण हैं । मुझे इस विनोद मे रस आने लगा । मैं भी इसमे शरीक हो गया । वाणी मे से क्रिया मे उतरने की तैयारी थी । ताश एक तरफ घरे ही जा रहे थे । लेकिन मेरे भले साथी के मन में राम बसे । उन्होंने कहा, 'अरे, तुम मे यह कलियुग कैसा ! तुम्हारा यह काम नहीं हैं। तुम यहाँ से भागो ।'
मैं शरमाया । सावधान हुआ । हृदय में उन मित्र का उपकार माना । माता के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा याद आयी । मैं भागा । काँपता-काँपता अपनी कोठरी में पहुँचा । छाती धड़क रही थी । कातिल के हाथ से बचकर निकले हुए शिकार की जैसी दशा होती हैं वैसी ही मेरी हुई ।
मुझे याद हैं कि पर-स्त्री को देखकर विकारवश होने और उसके साथ रंगरेलियाँ करने की इच्छा पैदा होने का मेरे जीवन मे यह पहला प्रसंग था । उस रात मैं सो नहीं सका । अनेक प्रकार के विचारों ने मुझ पर हमला किया । घर छोड़ दूँ ? भाग जाऊँ? मैं कहाँ हूँ ? अगर मैं सावधान न रहूँ तो मेरी क्या गत हो ? मैने खूब चौकन्ना रहकर बरतने का निश्चय किया । यह सोच लिया कि घर तो नहीं छोड़ना हैं , पर जैसे भी बने पोर्टस्मथ जल्दी छोड़ देना हैं । सम्मेलन दो दिन से अधिक चलने वाला न था । इसलिए जैसा कि मुझे याद हैं , मैने दूसरे दिन ही पोर्टस्मथ छोड दिया । मेरे साथी पोर्टस्मथ मे कुछ दिन के लिए रुके ।
उन दिनों मैं यह बिल्कुल नहीं जानता था कि धर्म क्या हैं , और वह हम मे किस प्रकार काम करता हैं । उस समय तो लौकिक दृष्टि से मै यहीं समझा कि ईश्वर ने मुझे बचा लिया हैं । पर मुझे विविध क्षेत्रो में ऐसे अनुभव हुए हैं । मैं जानता हूँ कि 'ईश्वर ने बचाया' वाक्य का अर्थ आज मैं अच्छी तरह समझने लगा हूँ । पर साथ ही मैं यह भी जानता हूँ कि इस वाक्य की पूरी कीमत अभी तक मैं आँक नहीं सका हूँ । वह तो अनुभव से ही आँकी जा सकती हैं । पर मैं कह सकता हूँ कि कई आध्यात्मिक प्रसंगों में वकालत के प्रसंगो में, संस्थाये चलाने में, राजनीति में 'ईश्वर नें मुझे बचाया हैं ।' मैने यह अनुभव किया हैं कि जब हम सारी आशा छोड़कर बैठ जाते हैं, हमारे हाथ टिक जाते हैं , तब कहीँ न कही से मदद आ ही पहुँचती हैं । स्तुति, उपासना, प्रार्थना वहम नहीं हैं, बल्कि हमारा खाना -पीना, चलना-बैठना जितना सच हैं, उससे भी अधिक सच यह चीज हैं । यह कहनें में अतिशयोक्ति नहीं कि यही सच हैं और सब झूठ हैं ।
ऐसी उपासना , ऐसी प्रार्थना, निरा वाणी-विलास नहीं होती । उसका मूल कण्ठ नहीं, हृदय हैं । अतएव यदि हम हृदय की निर्मलता को पा ले, उसके तारो को सुसंगठित रखे , तो उनमें से जो सुर निकलते हैं, वे गगन गामी होते हैं । उसके लिए जीभ की आवश्यकता नहीं होती । वह स्वभाव से ही अद्भूत वस्तु हैं । इस विषय में मुझे कोई शंका ही नहीं हैं कि विकार रुपी मलों की शुद्धि के लिए हार्दिक उपासना एक रामबाण औषधि हैं । पर इस प्रसादी के लिए हम में संपूर्ण नम्रता होनी चाहिये ।

नारायण हेमचन्द्र
इन्ही दिनों स्व. नारायण हेमचन्द्र विलायत आये थे । लेखक के रुप में मैने उनका नाम सुन रखा था । मैं उनसे नेशनल इंडियन एसोसियेशन की मिस मैनिंग के घर मिला । मिस मैनिंग जानती कि मैं सब के साथ हिलमिल नहीं पाता । जब मैं उनके घर जाता, तो मुँह बन्द करके बैठा रहती । कोई बुलवाता तभी बोलता ।
उन्होंने नारायण हेमचन्द्र से मेरी पहचान करायी । नारायण हेमचन्द्र अंग्रेजी नहीं जानते थे । उनकी पोशाक अजीब थी । बेडौल पतलून पहले हुए थे । ऊपर सिकुड़नों वाला, गले पर मैला, बादामी रंग का कोट था । नेकटाई या कॉलर नहीं थे । कोट पारसी तर्ज का, पर बेढंगा था । सिर पर ऊन की गुंथी हुई झल्लेदार टोपी थी । उन्होंने लंबी दाढ़ी बढ़ा रखी थी ।
कद इकहरा और ठिंगना कहा जा सकता था । मुँह पर चेचक के दाग थे । चेहरा गोल । नाक न नुकीली न चपटी । दाढी पर उनका हाथ फिरता रहता । सारे सजे धजे लोगों के बीच नारायण हेमचन्द्र विचित्र लगते थे और सबसे अलग पड़ जाते थे ।
'मैने आपका नाम बहुत सुना हैं । कुछ लेख भी पढ़े हैं। क्या आप मेरे घर पधारेंगे ?'
नारायण हेमचन्द्र की आवाज कुछ मोटी थी। उन्होने मुस्कराते हुए जवाब दिया, 'आप कहाँ रहते हैं ?'
'स्टोर स्ट्रीट में'
'तब तो हम पड़ोसी हैं । मुझे अंग्रेजी सीखनी हैं । आप मुझे सिखायेंगे ?'
मैने उत्तर दिया, 'अगर मैं आपकी कुछ मदद कर सकूँ , तो मुझे खुशी होगी । मै अपनी शक्ति भर प्रयत्न अवश्य करुँगा । आप कहे तो आपके स्थान पर आ जाया करुँ ।'
'नहीं, नहीं , मैं ही आपके घर आऊँगा । मेरे पास पाठमाला हैं । उसे भी लेता आउँगा ।'
हमने समय निश्चित किया । हमारे बीच मजबूत स्नेह-गाँठ बंध गयी ।
नारायण हेमचन्द्र को व्याकरण बिल्कुल नहीं आता था । वे 'घोड़ा' को क्रियापद बना देते और 'दौडना' के संज्ञा । ऐसे मनोरंजक उदाहरण तो मुझे कई याद हैं । पर नारायण हेमचन्द्र तो मुझे घोटकर पी जानेवालो में थे । व्याकरण के मेरे साधारण ज्ञान से मुग्ध होने वाले नहीं थे । व्याकरण न जानने की उन्हें कोई शरम ही नहीं थी ।
'तुम्हारी तरह मैं किसी स्कूल में नहीं पढ़ा हूँ । उपने विचार प्रकट करने के लिए मुझे व्याकरण की आवश्यकता मालूम नहीं होती । बोलो, तुम बंगला जानते हैं ? मैं बंगाल में घूमा हूँ । महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर की पुस्तकों के अनुवाद गुजराती जनता को मैने दिये हैं । मैं गुजराती जनता को कई भाषाओ के अनुवाद देना चाहता हूँ । अनुवाद करते समय मैं शब्दार्थ से नहीं चिपकता, भावार्थ दे कर संतोष मान लेता हूँ । मेरे बाद दूसरे भले ही अधिक देते रहें । मैं बिना व्याकरण के भी मराठी जानता हूँ, हिन्दी जानता हूँ , और अब अंग्रेजी भी जानने लगा हूँ । मुझे तो शब्दभंडार चाहिये । तुम यह न समझो कि अकेली अंग्रेजी से मुझे संतोष हो जायेगा । मुझे फ्रांस जाना हैं और फ्रेंच भी सीख लेनी हैं । मैं जानता हूँ कि फ्रेंच साहित्य विशाल हैं । संभव हुआ तो मैं जर्मनी भी जाऊँगा और जर्मन सीख लूँगा ।'
नारायण हेमचन्द्र की वाग्धारा इस प्रकार चलती ही रही । भाषाएं सीखने और यात्रा करने की उनके लोभ की कोई सीमा न थी ।
'तब आप अमेरीका तो जरुर ही जायेंगे?'
'जरुर। उस नयी दुनिया को देखे बिना मैं बापस कैसे लौट सकता हूँ ।'
'पर आपके पास इतने पैसे कहाँ हैं ?'
'मुझे पैसो से क्या मतलब ? मुझे कौन तुम्हारी तरह टीमटाम से रहना हैं ? मेरा खाना कितना हैं और पहनना कितना हैं ? पुस्तको से मुझे जो थोड़ा मिलता हैं और मित्र जो थोड़ा देते हैं , वह सब काफी हो जाता हैं । मैं तो सब कहीं तीसरे दर्जें में ही जाता हूँ । अमरीका डेक में जाऊँगा ।'
कार्डिनल मैनिंग की सादगी तो उनकी अपनी ही चीज थी । उनकी निखालिसता भी वैसी ही थी । अभिमान उन्हें छू तक नहीं गया था । लेकिन लेखक के रुप में अपनी शक्ति पर उन्हे आवश्यकता से अधिक विश्वास था ।
हम रोज मिला करते थे । हममे विचार और आचार की पर्याप्त समानता थी । दोनो अन्नाहारी थे । दुपहर का भोजन अकसर साथ ही करते थे । यह मेरा वह समय था, जब मैं हफ्ते के सत्रह शिलिंग में अपना निर्वाह करता था और हाथ से भोजन बनाता था । कभी मैं उनके मुकाम पर जाता , तो किसी दिन वे मेरे घर आते थे । मैं अग्रेजी ढंग की रसोई बनता था । उन्हे देशी ढंग के बिना संतोष ही न होता । दाल तो होनी ही चाहिये । मैं गाजर वगैरा का सूप बनाता तो इसके लिए वे मुझ पर तरस खाते । वे कहीं से मूंग खोजकर ले आये थे । एक दिन मेरे लिए मूंग पकाकर लाये और मैने उन्हें बड़े चाव से खाया । फिर तो लेन-देन का हमारा यह व्यवहार बढ़ा । मैं अपने बनाये पदार्थ उन्हें चखाता और वे अपनी चीजे मुझे चखाते ।
उन दिनों कार्डिनल मैनिंग का नाम सबकी जबान पर था । डक के मजदूरों की हड़ताल थी । जॉन बर्न्स और कार्डिनल मैनिंग के प्रयत्न से हड़ताल जल्दी ही खुल गयी । कार्डिनल मैनिंग की सादगी के बारे में डिज़रायेली ने जो लिखा था, सो मैंने कार्डिनल मैनिंग को सुनाया ।
'तब तो मुझे इन साधु पुरुष से मिलना चाहिये ।'
'वे बहुत बडे आदमी हैं। आप कैसे मिलेंगे ?'
'जैसे मैं बतलाता हूँ । तुम मेरे नाम से उन्हे पत्र लिखो । परिचय दो कि मैं लेखक हूँ और उनके परोपकार के कार्य का अभिनन्दन करने के लिए स्वयं उनसे मिलना चाहता हूँ । यह भी लिखो कि मुझे अंग्रेजी बोलना नहीं आता, इसलिए मुझे तुम को दुभाषिये के रुप मे ले जाना होगा । '
मैने इस तरह का पत्र लिखा । दो-तीन दिन कार्डिनल मैनिंग का जवाब एक कार्ड में आया । उन्होने मिलने का समय दिया था ।
हम दोनो गये । मैने प्रथा के अनुसार मुलाकाती पोशाक पहन ली थी । पर नारायण हेमचन्द्र तो जैसे रहते थे वैसे ही रहे । वही कोट और वही पतलून । मैने मजाक किया । मेरी बात को उन्होने हँसकर उड़ा दिया और बोले , 'तुम सभ्य लोग सब डरपोक हो । महापुरुष किसी की पोशाक नही देखते । वे तो उसका दिल परखते हैं ।'
हमने कार्डिनल के महल मे प्रवेश किया । घर महल ही था । हमारे बैठते ही एक बहुत दुबले-पतले , बूढे , ऊँचे पुरुष ने प्रवेश किया । हम दोनों के साथ हाथ मिलाये । नारायण हेमचन्द्र का स्वागत किया ।
'मैं आपका समय नहीं लूँगा । मैने आपके बारे मे सुना था । हड़ताल में आपने जो काम किया, उसके लिए आपका उपकार मानना चाहता हूँ । संसार के साधु पुरुषों के दर्शन करना मेरा नियम हैं , इस कारण मैंने आपको इतना कष्ट दिया ।' नारायण हेमचन्द्र में मुझे से कहा कि मैं इस वाक्यो का उल्था कर दूँ ।
'आपके आने से मुझे खुशी हुई हैं । आशा हैं, यहाँ आप सुखपूर्वक रहेगेम और यहाँ के लोगो का परिचय प्राप्त करेंगे । ईश्वर आपका कल्याण करे। ' यह कह कर कार्डिनल खड़े हो गये ।
एक बार नारायण हेमचन्द्र मेरे यहाँ धोती कुर्ता पहनकर आये । भली घर-मालकिन मे दरवाजा खोला और उन्हें देख कर डर गयी । मेरे पास आकर (पाठकों को याद होगा कि मैं अपने घर बदलता ही रहता था । इसलिए यह मालकिन नारायण हेमचन्द्र को नहीं जानती थी ।) बोली, 'कोई पागल सा आदमी तुमसे मिलना चाहता हैं ।' मै दरवाजे पर गया तो नारायण हेमचन्द्र को खड़ा पाया । मैं दंग यह गया । पर उसके मुँह पर तो सदा की हँसी के सिवा और कुछ न था ।
'क्या लड़को ने आपको तंग नहीं किया ?'
जवाब में वे बोले, 'मेरे पीछे दौड़ते रहे । मैने कुछ ध्यान नही दिया , इसलिए वे चुप हो गये ।'
नारायण हेमचन्द्र कुछ महीने विलायत रहकर पेरिस गये । वहाँ फ्रेंच का अध्ययन शुरु किया और फ्रेंच पुस्तकों का अनुवाद करने लगे । उनके अनुवाद को जाँचने लायक फ्रेंच मैं जानता था, इसलिए उन्होने उसे देख लेने जाने का कहा । मैने देखा कि वह अनुवाद नही था , केवल भावार्थ था ।
आखिर उन्होंने अमेरीका जाने का अपनी निश्चय पूरा किया । बड़ी मुश्किल से डेक का या तीसरे दर्जे के टिकट पा सके थे । अमेरीका में धोती-कुर्ता पहनकर निकलने के कारण 'असभ्य पोशाक पहनने' के अपराध में वे पकड़ लिये गये थे । मुझे याद पड़ता हैं कि बाद में वे छूट गये थे ।

महाप्रदर्शनी
सन् 1890 मे पेरिस मे एक बड़ी प्रदर्शनी हुई थी । उसकी तैयारियों के बारे में पढ़ता रहता था । पेरिस देखने की तीव्र इच्छा तो थी ही । मैने सोचा कि यह प्रदर्शनी देखने जाऊँ , तो दोहरा लाभ होगा । प्रदर्शनी मे एफिल टॉवर देखने का आकर्षण बहुत था । यह टॉवर सिर्फ लोहे का बना है । एक हजार फुट ऊँचा हैं । इसके बनने से पहले लोगों की यह कल्पना थी कि एक हजार फुट ऊँचा मकान खड़ा ही नही रह सकता । प्रदर्शनी मे और भी बहुत कुछ देखने जैसा था ।
मैने पढ़ा था कि पेरिस में एक अन्नाहार वाला भोजन गृह हैं । उसमे एक कमरा मैने ठीक किया । गरीबी से यात्रा करके पेरिस पहुँचा । सात दिन रहा । देखने योग्य सब चीजे अधिकतर पैदल घूमकर ही देखी । साथ में पेरिस की और उस प्रदर्शनी की गाइड तथा नक्शा ले लिया था । उसके सहारे रास्तो का पता लगाकर मुख्य मुख्य चीजे देख ली ।
प्रदर्शनी की विशालता और विविधता के सिवा उसकी और कोई बात मुझे याद नहीँ हैं । एफिल टॉवर पर तो दो-तीन बार चढा था , इसलिए उसकी मुझे अच्छी तरह याद हैं । पहली मंजिल पर खाने-पीने का प्रबंध था । यह कर सकने के लिए कि इतनी ऊँची जगह पर भोजन किया था , मैने साढ़े सात शिंलिग फूँककर वहाँ खाना खाया ।
पेरिस के प्राचीन गिरजाघरों की याद बनी हुई हैं । उनकी भव्यता और उनके अन्दर मिलने वाली शान्ति भूलायी नही जा सकती । नोत्रदाम की कारीगरी और अन्दर की चित्रकारी को मैं आज भी भूला नहीँ हूँ । उस समय मन मे यह ख्याल आया था कि जिन्होने लाखों रुपये खर्च करके ऐसे स्वर्गीय मन्दिर बनवाये हैं , उनके दिल की गहराई में ईश्वर प्रेम तो रहा ही होगा ।
पेरिस की फैशन , पेरिस के स्वेच्छाचार और उसके भोग-विलास के विषय में मैंने काफी पढ़ा था । उसके प्रमाण गली-गली में देखने को मिलते थे । पर ये गिरजाघर उन भोग विलासो से बिल्कुल अलग दिखायी पड़ते थे । गिरजों में घुसते ही बाहर की अशान्ति भूल जाती हैं । लोगो का व्यवहार बदल जाता हैं । लोग अदब से पेश आते हैं । वहाँ कोलाहल नहीं होता । कुमारी मरियम की मूर्ति के सम्मुख कोई न कोई प्रार्थना करता ही रहता हैं । यह सब वहम नहीं हैं, बल्कि हृदय की भावना हैं, ऐसा प्रभाव मुझ पर पड़ा था और बढता ही गया हैं । कुमारिका की मूर्ति के सम्मुख घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना करनेवाले उपासक संगमरमर के पत्थर को नहीं पूजते थे , बल्कि उसमे मानी हुई अपनी कल्पित शक्ति को पूजते थे । ऐसा करके वे ईश्वर की महिमा को घटाते नही बल्कि बढाते थे , यह प्रभाव मेरे मन पर उस समय पड़ा था , जिसकी धुंधली याद मुझे आज भी हैं ।
एफिल टॉवर के बारे मे दो शब्द कहना आवश्यक हैं । मैं नहीं जानता कि आज एफिल टॉवर का क्या उपयोग हो रहा हैं । प्रदर्शनी में जाने के बाद प्रदर्शनी सम्बन्धी बाते तो पढने मे आती ही थी । उसमे उसकी स्तुति भी पढ़ी और निन्दा भी । मुझे याद हैं कि निन्दा करने वालो में टॉल्स्टॉय मुख्य थे । उन्होंने लिखा था कि एफिल टॉवर मनुष्य की मूर्खता का चिह्न हैं , उसेक ज्ञान का परिणाम नहीं । अपने लेख मे उन्होंने बताया था कि दुनिया मे प्रचलित कई तरह के नशों मे तम्बाकू का व्यसन एक प्रकार से सबसे ज्यादा खराब हैं । कुकर्म करने की जो हिम्मत मनुष्य में शराब पीने से नही आती , वह बीड़ी पीने से आती हैं । शराब पीनेवाला पागल हो जाता हैं , जब कि बीडी पीने वाले की अक्ल पर धुँआ छा जाता हैं , और इस कारण वह हवाई किले बनाने लगता है । टॉल्स्टॉय मे अपनी यह सम्मति प्रकट की थी कि एफिल टॉवर ऐसे ही व्यसन का परिणाम हैं ।
एफिल टॉवर में सौन्दर्य तो कुछ हैं ही नहीं । ऐसा नहीँ कर सकते कि उसके कारण प्रदर्शनी की शोभा मे कोई वृद्धि हुई । एक नई चीज हैं बडी चीज हैं, इस लिए हजारो लोग देखने के लिए उस पर चढे । यह टॉवर प्रदर्शनी का एक खिलौना था । और जब हम मोहवश हैं तब तक हम भी बालक हैं , यह चीज इस टाँवर से भलीभाँति सिद्ध होती हैं । मानना चाहे तो इतनी उपयोगिता उसकी मानी जा सकती हैं ।

बारिस्टर तो बने -- लेकिन आगे क्या ?
मैं जिस काम के लिए (बारिस्टर बनने) विलायत गया था , उसका मैने क्या किया , इसकी चर्चा मैंने अब तक छोड़ रखी थी । अब उसके बारे में कुछ लिखने का समय आ गया हैं ।
बारिस्टर बनने के लिए दो बातों की जरुरत थी । एक थी 'टर्म पूरी करना' अर्थात् सत्र में उपस्थित रहना । वर्ष में चार सत्र होते थे । ऐसे बारह सत्रों में हाजिर रहना था । दूसरी चीज थी, कानून की परीक्षा देना । सत्रों में उपस्थिति का मतलब था, 'दावतें खाना' ; यानि हरएक सत्र में लगभग चौबीस दावते होती थी, उनमें से छह में सम्मिलित होना । दावतों में भोजन करना ही चाहिये , ऐसा कोई नियम नहीं था, परन्तु निश्चित समय पर उपस्थिति रहकर भोज की समाप्ति तक वहाँ बैठे रहना जरूरी था । आम तौर पर तो सब खाते-पीते ही थे । खाने में अच्छी-अच्छी चींजे होती थी और पीने के लिए बढ़िया मानी जानेवाली शराब । अलबत्ता, उसके दाम चुकाने होते थे । यह रकम ढाई से साढ़े तीन शिलिंग होती थी ; अर्थात् दो-तीन रुपये का खर्च हुआ । वहाँ यह कीमत बहुत कम मानी जाती थी, क्योकि बाहर के होटल मे ऐसा भोजन करने वालो को लगभग इतने पैसे तो शराब के ही लग जाते थे । खाने की अपेक्षा शराब पीनेवाले को खर्च अधिक होता हैं । हिन्दुस्तान में हम को (यदि हम 'सभ्य' न हुए तो) इस पर आश्चर्य हो सकता हैं । मुझे तो विलायत जाने पर यह सब जानकर बहुत आघात पहुँचा था । और मेरी समझ में नहीं आता था कि शराब पीने के पीछे इतना पैसा बरबाद करने की हिम्मत लोग कैसे करते हैं । बाद में समझना सीखा ! इन दावतों में मैं शुरु के दिनों में कुछ भी न खाता था , क्योकि मेरे काम की चीजों मे वहाँ सिर्फ रोटी, उबले आलू और गोभी होती थी । शुरु में तो ये रुचे नहीं, इससे खाये नहीं । बाद में जब उनमे स्वाद अनुभव किया तो तो दूसरी चीजें भी प्राप्त करने की शक्ति मुझ में आ गयी ।
विद्यार्थियों के लिए एक प्रकार के भोजन की और 'बेंचरों' (विद्या मन्दिर के बड़ो) के लिए अलग से अमीरी भोजन की व्यवस्था रहती थी । मेरे साथ एक पारसी विद्यार्थी थे । वे भी अन्नाहारी बन गये थे । हम दोनो ने अन्नाहार के प्रचार के लिए 'बेंचरों' के भोजन में से अन्नाहारी के खाने लायक चीजों की माँग की । इससे हमें 'बेंचरों' की मेज पर परसे फल वगैरा और दूसरे शाक सब्जियाँ मिलने लगी ।
शराब तो मेरे काम की नही थी । चार आदमियों के बीच दो बोतले मिलती थी । इसलिए अनेक चौकड़ियों में मेरी माँग रहती थी । मैं पीता नही था, इसलिए बाकी तीन को दो बोतल जो 'उड़ाने' को मिल जाती थी ! इसके अलावा , इन सत्रों में 'महारात्रि' (ग्रैंड नाइट) होती थी । उस दिन 'पोर्ट' और 'शेरी' के अलावा 'शेम्पन' शराब भी मिलती थी । 'शेम्पन' की लज्जत कुछ और ही मानी जाती हैं । इसलिए इस 'महारात्रि' के दिन मेरी कीमत बढ़ जाती थी और उस रात हाजिर रहने का न्योता भी मुझे मिलता ।
इस खान-पान से बारिस्टरी मे क्या बृद्धि हो सकती हैं , इसे मैं न तब समझ सका न बाद में । एक समय ऐसा अवश्य था कि जब इन भोजों मे थोड़े ही विद्यार्थी सम्मिलित होते थे और उनके तथा 'बेंचरों' के बीच वार्तालाप होता और भाषण भी होते थे । इससे उन्हें व्यवहार -ज्ञान प्राप्त हो सकता था । वे अच्छी हो चाहे बुरी, पर एक प्रकार की सभ्यता सीखते थे और भाषण करने की शक्ति बढ़ाते थे । मेरे समय में तो यह सब असंभव ही था । बेंचर तो दूर, एक तरफ, अस्पृश्य बनकर बैठे रहते थे । इस पुरानी प्रथा का बाद में कोई मतलब नही रह गया । फिर भी प्राचीनता के प्रेमी धीमे इंगलैंड में वह बनी रही ।
कानून की पढाई सरल थी । बारिस्टर मजाक में 'डिनर' (भोज के) बारिस्टर ही कहलाते थे । सब जानते थे कि परीक्षा का मूल्य नही के बराबर हैं । मेरे समय मे दो परीक्षाये होती थी, रोमन लॉ और इंगलैंड के कानून की । दो भागो मे दी जाने वाली इस परीक्षा की पुस्तके निर्धारित थी । पर उन्हें शायद ही कोई पढता था । रोमन लॉ पर लिखे संक्षिप्त नोट मिलते थे । उन्हें पन्द्रह दिन मे पढकर पास होने वालो को मैने देखा था । यही चीज इंग्लैंड के कानून के बारे में भी थी । उस पर लिखे नोटों को दो-तीन महीनों में पढ़कर तैयार होने वाले विद्यार्थी भी मैने देखे थे । परीक्षा के प्रश्न सरल, परीक्षक उदार । रोमन लॉ मे पंचानवे से निन्यानवे प्रतिशत तक लोग उत्तीर्ण होते थे और अंतिम परीक्षा में पचहत्तर प्रतिशत या उससे भी अधिक । इस कारण अनुत्तीर्ण होने का डर बहुत कम रहता था । फिर परीक्षा वर्ण में एक बार नहीं चार बार होती थी । ऐसी सुविधा वाली परीक्षा किसी के लिए बोझरुप हो ही नहीं सकती थी ।
पर मैने उसे बोझ बना लिया । मुझे लगा कि मूल पुस्तके पढ़ ही जानी चाहिये । न पढ़ने मे मुझे धोखेबाजी लगी । इसलिए मैने मूल पुस्तके खरीदने पर काफी खर्च किया । मैंने रोमन लॉ को लेटिन मे पढ़ डालने का निश्चय किया । विलायत की मैट्रिक्युलेशन की परीक्षा में मैने लेटिन सीखी थी, यह पढ़ाई व्यर्थ नहीं गयी । दक्षिण अफ्रीका में रोमन-डच लॉ (कानून) प्रमाणभूत माना जाता हैं । उसे समझने मे जस्टिनियन का अध्ययन मेरे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ ।
इंग्लैड के कानून का अध्ययन मैं नौ महीनों मे काफी मेहनत के बाद समाप्त कर सका , क्योकि ब्रुम के 'कॉमन लॉ' नामक बडे परन्तु दिलचस्प ग्रंथ का अध्ययन करने मे ही काफी समय लग गया । स्नेल की 'इक्विटी' को रसपूर्वक पढ़ा , पर उसे समझने मे मेरा दम निकल गया । व्हाइट और ट्यूडर के प्रमुख मुकदमों में से जो पढ़ने योग्य थे , उन्हे पढ़ने मे मुझे मजा आया और ज्ञान प्राप्त हुआ । विलियम्स और एडवर्डज की स्थावर सम्पत्ति विषयक पुस्तक मै रस पूर्वक पढ़ सका था । विलियम्स की पुस्तक तो मुझे उपन्यास सी लगी । उसे पढ़ते समय जी जरा भी नही ऊबा । कानून की पुस्तकों में इतनी रुचि के साथ हिन्दुस्तान आने के बाद मैने मेइन का 'हिन्दु लॉ' पढ़ा था । पर हिन्दुस्तान के कानून की बात यहाँ नही करुँगा ।
परीक्षाये पास करके मैं 10 जून 1891 के दिन बारिस्टर कहलाया । 11 जून को ढ़ाई शिलिंग देकर इंग्लैड के हाईकोर्ट में अपना नाम दर्ज कराया और 12 जून को हिन्दुस्तान के लिए रवाना हुआ ।
पर मेरी निराशा और मेरे भय की कोई सीमा न थी । मैने अनुभव किया कि कानून तो मैं निश्चय ही पढ़ चुका हूँ , पर ऐसी कोई भी चीज मैने सीखी नहीं हैं जिससे मैं वकालत कर सकूँ ।
मेरी इस व्यथा के वर्णन के लिए स्वतंत्र प्रकरण आवश्यक हैं ।

मेरी परेशानी
बारिस्टर कहलाना आसान मालूम हुआ , पर बारिस्टरी करना मुश्किल लगा । कानून पढ़े, पर वकालल करना न सीखा । कानून मे मैने कई धर्म-सिद्धान्त पढ़े, जो अच्छे लगे । पर यह समझ मे न आया कि इस पेशे मे उनका उपयोग कैसे किया जा सकेगा । 'अपनी सम्पत्ति का उपयोग तुम इस तरह करो कि जिससे दूसरे की सम्पत्ति को हानि न पहुँचे' यह एक धर्म-वचन हैं । पर मैं यह न समझ सका कि मुवक्किल के मामले में इसका उपयोग कैसे किया जा सकता था । जिस मुकदमों में इस सिद्धान्त का उपयोग हुआ था, उन्हें मैं पढ़ गया । पर उससे मुझे इस सिद्धान्त का उपयोग करने की युक्ति मालूम न हुई ।
इसके अलावा, पढ़े हुए कानूनों में हिन्दुस्तान के कानून का तो नाम तक न था । मै यह जान ही न पाया कि हिन्दु शास्त्र और इस्लामी कानून कैसे हैं । न मै अर्जी-दावा तैयार करना सीखा। मैं बहुत परेशान हुआ । फीरोजशाह मेहता का नाम मैने सुना था । वे अदालतों मे सिंह की तरह गर्जना करते थे । विलायत में उन्होने यह कला कैसे सीखी होगी ? उनके जितनी होशियारी तो इस जीवन मे आ नही सकती । पर एक वकील के नाते आजीविका प्राप्त करने की शक्ति पाने के विषय में भी मेरे मन मे बड़ी शंका उत्पन्न हो गयी ।
यह उलझन उसी समय से चल रही थी, जब मैं कानून का अध्ययन करने लगा था । मैने अपनी कठिनाईयाँ एक-दो मित्रो के सामने रखी । उन्होने सुझाया कि मैं नौरोजी की सलाह लूँ । यह तो मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि दादा भाई के नाम एक पत्र मेरे पास था । उस पत्र का उपयोग मैंने देर से किया । ऐसे महान पुरुष से मिलने जाने का मुझे क्या अधिकार था ? कहीं उनका भाषण होता , तो मै सुनने जाता और एक कोने में बैटकर आँख और कान को तृप्त करके लौट आता । विद्यार्थियो से सम्पर्क रखने के लिए उन्होने एक मंडली की भी स्थापना की थी । मै उसमे जाता रहता था । विद्यार्थियो के प्रति दादाभाई की चिन्ता देखकर और उनके प्रति विद्यार्थियो का आदर देखकर मुझे आनन्द होता था । आखिर मैने उन्हें अपने पास का सिफारिशी पत्र देने की हिम्मत की । मै उनसे मिला । उन्होंने मुझसे कहा ,'तुम मुझ से मिलना चाहो और कोई सलहा लेना चाहो तो जरुर मिलना ।' पर मैने उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं दिया । किसी भारी कठिनाई के सिवा उनका समय लेना मुझे पाप जान पड़ा । इसलिए उक्त मित्र की सलाह मान कर दादाभाई के सम्मुख अपनी कठिनाईयाँ रखने की मेरी हिम्मत न पड़ी ।
उन्हीं मित्र मे या किसी और ने मुझे सुझाया कि मैं मि. फ्रेडरिक पिंकट से मिलूँ । मि. पिंकट कंज्रवेटिव (अनुदार) दल के थे । पर हिन्दुस्तानियों के प्रति उनका प्रेम निर्मल और निःस्वार्थ था । कई विद्यार्थी उनसे सलाह लेते थे । अतएव उन्हें पत्र लिखकर मैने मिलने का समय माँगा । उन्होने समय दिया । मैं उनसे मिला । इस मुलाकात को मैं कभी भूल नहीं सका । वे मुझसे मित्र की तरह मिले । मेरी निराशा को तो उन्होने हँस कर ही उड़ा दिया । 'क्या तुम मानते हो कि सबके लिए फीरोजशाह मेहता बनना जरुरी हैं ? फीरोजशाह मेहता या बदरुद्दीन तैयबजी तो एक-दो ही होते हैं । तुम निश्चय समझो कि साधारण वकील बनने के लिए बहुत अधिक होशियारी की जरुरत नहीं होती । साधारण प्रामाणिकता और लगन से मनुष्य वकालत का पेशा आराम से चला सकता हैं । सब मुकदमे उलझनो वाले नही होते । अच्छा , तो यह बताओ कि तुम्हारा साधारण वाचन क्या है ?'
जब मैंने अपनी पढ़ी हुई पुस्तको की बात की तो मैंने देखा कि वे थोड़े निराश हुए । पर यह निराशा क्षणिक थी । तुरन्त ही उनके चेहरे पर हँसी छा गयी और वे बोले , 'अब मैं तुम्हारी मुश्किल को समझ गया हूँ । साधारण विषयों की तुम्हारी पढ़ाई का बहुत कम हैं । तुम्हें दुनिया का ज्ञान नही हैं । इसके बिना वकील का काम नही चल सकता । तुमने तो हिन्दुस्तान का इतिहास भी नहीं पढ़ा हैं । वकील को मनुष्य का स्वभाव का ज्ञान होना चाहिये । उसे चहेरा देखकर मनुष्य को परखना आना चाहिये । साथ ही हरएक हिन्दुस्तानी को हिन्दुस्तान के इतिहास का भी ज्ञान होना चाहिये । वकालत के साथ इसका कोई सम्बन्ध नही हैं , पर तुम्हे इसकी जानकारी होनी चाहिये । मै देख रहा हूँ कि तुमने के और मेलेसन की 1857 के गदर की किबात भी नहीँ पढ़ी हैं । उसे तो तुम फौरन पढ़ डालो और जिन दो पुस्तकों के नाम देता हूँ, उन्हे मनुष्य की परख के ख्याल से पढ़ जाना । ' यौ कहकर उन्होंने लेवेटर और शेमलपेनिक की मुख-सामुद्रिक विद्या (फीजियोग्नॉमी) विषयक पुस्तकों के नाम लिख दिये ।
मैने उन वयोवृद्ध मित्र का बहुत आभार माना । उनकी उपस्थिति मे तो मेरा भय क्षण भर के लिए दूर हो गया । पर बाहर निलकने के बाद तुरन्त ही मेरी घबराहट फिर शुरु हो गयी । चेहरा देखकर आदमी को परखने की बात को रटता हुआ और उन दो पुस्तकों का विचार करता हुआ मैं घर पहुँचा । दुसरे दिन लेवेटर की पुस्तक खरीदी । शेमलपेनिक की पुस्तक उस दुकान पर नहीं मिली । लेलेटर की पुस्तक पढ़ी, पर वह तो स्नेल से भी अधिक कठिन जान पड़ी । रस भी नहीं के बराबर ही मिला । शेक्सपियर के चेहरे का अध्ययन किया । पर लंदन की सडको पर चलने वाले शेक्सपियरों को पहचाने की कोई शक्ति तो मिली ही नही ।
लेवेटर की पुस्तक से मुझे कोई ज्ञान नही मिला । मि. पिंकट की सलाह का सीधा लाभ कम ही मिला , पर उनके स्नेह का बड़ा लाभ मिला । उनके हँसमुख और उदार चेहरे की याद बनी रही । मैने उनके इन वचनों पर श्रद्धा रखी कि वकालत करने के लिए फीरोजशाह महेता की होशियारी औऱ याददास्त की वगैरा की जरुरत नही हैं , प्रामाणिका और लगन से काम चल सकेगा । इन दो गुणो की पूंजी तो मेरे पास काफी मात्रा मे थी । इसलिए दिल मे कुछ आशा जागी ।
के और मेलेसन की पुस्तक विलायत मे पढ़ नही पाया । पर मौका मिलते ही उसे पढ डालने का निश्चय किया । यह इच्छा दक्षिण अफ्रीका मे पूरी हुई ।
इस प्रकार निराशा मे तनिक सी आशा का पटु लेकर मैं काँपते पैरो 'आसाम' जहाज से बम्बई के बन्दरगाह पर उतरा । उस समय बन्दरगाह में समुद्र क्षुब्ध था , इस कारण लांच (बडी नाव) में बैठकर किनार पर आना पड़ा ।