रविवार, 17 अक्तूबर 2010

फाल्गुन विश्व का अक्टूबर अंक आपकी नज़र


लीजिये फाल्गुन विश्व का पांचवां अंक आपके लिए हाज़िर है। यह आवरण पृष्ठ है। यदि इस फार्मेट में आपको इस पत्रिका को पढ़ने में कोई दिक्कत हो रही है, तो कृपया कमेन्ट कॉलममें लिखे और यह भी बताएं की आप किस फार्मेट में पढ़ना चाहेंगे पत्रिका।

सु-साइड सेवर डट काम का विज्ञापन


इस पृष्ठ पर आपका भी विज्ञापन हो सकता है। नियमित अंक में विज्ञापन महज ३००० रूपए में। दीपावली अंक में इस पृष्ठ पर विज्ञापन देने के लिए १५००० रूपए। अधिक जानकारी के लिए कृपया +९१ ९३७२७२७२५९ पर संपर्क करें।

विषय वस्तु एवं प्रिंट लाइन पृष्ठ


बुद्धिजीवियों की भूमिका
















बुद्धिजीवियों की भूमिका क्या होनी चाहिए। एडवर्ड सईद के इस वृहद् आलेख में यही है। हर वह व्यक्ति जो अपने को बुद्धिजीवी कहता, मानता अथवा समझता है या फिर होना चाहता है उसे यह आलेख जरूर पढ़ना चाहिए और जानना चाहिए की वह अपनी बुद्धिजीविता की कसौटी पर कितना खरा है।

अब तो याद कर लो माओ की नसीहत


प्रतिष्ठित बांग्ला एवं हिंदी कवि विश्वजीत सेन इन दिनों माओवादियों पर उखड़े हुए हैं। कानू सान्याल की हाल ही प्रकाशित किताब के हवाले से वह इनदिनों नक्सल वादियों की खूब कान खिंचाई कर रहे है। पढ़िए...

वेदांता, गोदावरी और विश्वसनीय छत्तीसगढ़




वरिष्ठ पत्रकार दिवाकर मुक्तिबोध देश के उन चुनिन्दा पत्रकारों में से एक हैं जो मूल्यों की पत्रकारिता करने में यकीं करते हैं। उनकी यह रपट आपको भी उनके इस गुण से परिचित करा देगी। हमें यह रपट उपलब्ध कराई है हमारे छत्तीसगढ़ प्रभारी कृष्ण धर शर्मा ने।

समुदाय बनाम विकास


वरिष्ठ पत्रकार जुगनू शारदेय पड़ताल कर रहे हैं की आखिर इस बार बिहार विधानसभा के चुनाव क्या गुल खिलने वाले हैं?

हम जो अब तक मरे नहीं गए


दिल्ली में वकालत की धूनी जमाये रंजीत वर्मा की यह कविता हिंदी साहित्य जगत में धूम मचाये हुए है। पढ़िए और जानिये क्यों ?

प्रेमचंद जी



यह आलेख पढ़िए और जानिये की ख्यातनाम छायावादी कवियित्री महादेवी वर्मा प्रेमचंद जी के विषय में क्या ख्याल रखती थीं।


प्रेमचंद की सामाजिक चिंताएं







जो लोग प्रेमचंद को गैर दलित साहित्यकार कहकर उन्हें खारिज करना चाहते हैं, उन्हें शैलेन्द्र चौहान का यह आलेख इसलिए पढ़ना चाहिए ताकि उन्हें मालूम हो की प्रेमचंद ही वह पहले लेखक थे जिन्होंने दलित, पीड़ित और उपेक्षित समाज का असल चित्र पूरी दुनिया के सामने अपने साहित्य के जरिये रखा था।

शैलेन्द्र चौहान की छः कवितायेँ




सुपरिचित कवि शैलेन्द्र चौहान की कुछ ताज़ी कवितायेँ पढ़ी जाएँ।

धर्म निरपेक्ष भारत में इस्लामिक पहचान











सेंटर फॉर स्टडी फॉर सोसाइटी एंड सेकुलरिस्म के संयोजक तथा जाने- माने इस्लामिक विद्वान डाक्टर असगर अली इंजीनिअर फाल्गुन विश्व में नियमित लेखन कर रहे हैं। इस बार अपने लम्बे आलेख में वह भारत में इस्लामिक पहचान को टटोलने की कामयाब कोशिश कर रहे हैं। आइये पढ़ें।

ब्लागगिंग कार्यशाला, आक्सीजन और दिल तो पागल है




बहुत सोचने के बाद यही शीर्षक सूझा इस बेहतरीन रपट का। यशवंत सिंह भड़ास फॉर मीडिया डाट काम नामक वेबसाइट चलाते हैं। पिछले कुछ समय से इनकी कलम भी पुनः चलने लग पड़ी है। वर्धा के महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में आयोजित दो दिनी ब्लॉगर सम्मलेन में यशवंत भी पूरी मुस्तैदी से उपस्थित थे। वहाँ से लौटकर उन्होंने कमाल की रपट लिखी, जो उनके वेबसाइट से हमने अपने पाठकों के लिए साभार ली है। रपट के बारे में ज्यादा बताना ठीक नहीं आप पढ़िए।

बढ़ रही है हिंदी ब्लॉगों की धमक


पेशे से पत्रकार संजीत त्रिपाठी ब्लॉगों की दुनिया का लोकप्रिय नाम है। इसी अक्टूबर में वर्धा के महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय विश्विद्यालय में दो दिन का ब्लॉगर सम्मलेन अयोकित किया गया था। इस विश्व विद्यालय की ओरसे आयोजित यह दूसरा सम्मलेन था। इसके पहले इसी तरह का एक सम्मलेन इलाहाबाद में आयोजित हो चुका है। वर्धा का सम्मलेन ब्लॉगों के लिए आचार संहिता की गुंजाइश की तलाश पर केन्द्रित था। संजीत वहाँ थे सो उन्होने अपने ब्लॉग पर उस सम्मलेन की रपट प्रकाशित की। हमने उन्हीं के ब्लाग से लेकर यह रापर अपने पाठकों के लिए प्रकाशित की है।

नोबेल पर चीनी बल




चीन के मानवाधिकार कार्यकर्ता गाओ ज़िन्ग्ज्याँ को जब इस वर्षा का शांति नोबल पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो चीनी सर्कार के माथे पर कैसे और क्यों बल पड़ने लगे यह बता रहे हैं पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव।

अयोध्या फैसले पर यह सोचता है पकिस्तान


जाने-माने पाकिस्तानी टीवी पत्रकार हामिद मीर का यह आलेख पाकिस्तानी नागरिकों के भारतीय मुसलामानों के प्रति संजो कर राखी जाने वाली सहानुभूति से उपजी प्रतिक्रिया की एक बानगी मात्र है। यह लेख बताता है की अयोध्या मामले को गैर भारतीय महज भारत का मुद्दा नहीं मानते।

बिक़े हुए हैं अखबार कोई खबर नहीं


उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में व्याप्त प्रदूषण और इसकी वजह से वहाँ के लोगों की तबाह हो रही जिंदगी के बारे में ये रपट है। यह रपट हमें फाल्गुन विश्व के उत्तर प्रदेश प्रभारी अनिरुद्ध मिश्र ने उपलब्ध कराईहै।

अंतिम दो पृष्ठ




एकतीस्वां नंबर का पेज दीपावली विशेषांक के लिए विज्ञापन का विवरण देता है। यदि कोई फाल्गुन विश्व के दीपावली विशेषांक के लिए विज्ञापन देना चाहे तो उसे +९१ ९३७२७२७२५९ पर जरूर संपर्क करना चाहिए। और अंतिम बत्तीसवां पेज इस बार पहली बार आर.एन.आइ पंजीयन नंबर के साथ जा रहा है।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

और अब पत्रिका के अंतिम तीन पृष्ठ







विचारहीन प्राथमिकताओं से आज़ादी


मेधा पाटकर का यह आलेख उन विचारहीन प्राथमिकताओं पर विचार करता है, जिसके बोझ तले हिन्दुस्तान का आम आदमी आज़ादी के ६२ साल बाद भी दबा हुआ है।

कला में स्त्री का वजूद




देश के जाने-माने शिल्पकार गोपाल नायडू ने यह आलेख ख़ास तौर पर फाल्गुन विश्व के लिए लिखा है। हमारे देश के कला जगत में आखिर स्त्री का वजूद क्या है, कहाँ है, यह आलेख इन्हीं सवालों की पड़ताल करता है।

पर्सनल ला के संहिताबद्ध होने से दर कैसा!




डाक्टर असगर अली इंजीनिअर का यह आलेख मुसलमानों के भीतर पनप रहे भय को उजागर करता है।

पिंगली वेंकैया को कौन जानता है?


राष्ट्र भारत की पहचान यानी हमारे तिरंगे के रचनाकार को इतिहास से ऐसे गायब किया गया की जैसे उनका कभी अस्तित्व ही नहीं था। हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक स्वतंत्र वार्ता के संपादक प्रदीप श्रीवास्तव ने नै पीढ़ी को पिंगली वेंकैया से परिचित कराने का काम किया है।

हिंदी पत्रकारिता का दनदनाहट काल




रवीशकुमार पाण्डेय टेलीविजन जगत की नामचीन हस्ती हैं। एनडीटीवी पर रवीश की रिपोर्ट नमाक इनका कार्यक्रम देश के आमजनों में खूब लोकप्रिय है। रवीश शायद टेलीविजन के अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें देश के हर समुदाय का व्यक्ति 'अपना आदमी' मानता है।

जीवन चालीसा




यशवंत सिंह का यह आलेख उनके अब तक के जीवन के सोपान को हम सबके बीच आलोकित करता है। एक इमानदार आदमी का इमानदार लेखन। यह लेख इंगित करता है की भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में यशवंत अपना मुकाम अवश्य बना जायेंगे।

बदलाव की बयार बह रही है




मृदुला गर्ग के इस आलेख में अपने बीते और वर्तमान समय को समझने का तटस्थ प्रयास झलकता है।

रणेंद्र की कविता


रणेंद्र की कविता अभी तो...

सीखना दिल से....






















असल में यह पुस्तक अंश है संयुक्त की इसी शीर्षक की किताब से। दसवीं-बारहवीं के बाद क्या? जिन बच्चों के समक्ष यह सवाल होता है, उन्हें संयुक्त की यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिय। और जिनके भीतर अपने भविष्य को लेकर कोई सवाल उपस्थित नहीं होता उन्हें तो यह किताब पढ़नी ही पढ़नी चाहिए।